13 मई, 2007

तब तो सारे ब्लॉग थानेदारजी चेक करेंगे

नाम से लग रहा है कि चंद्रमोहन हिंदू हैं, अगर मुसलमान या ईसाई होते तब तो भावनाएँ और ज़्यादा आहत हो जातीं. यह बार-बार आहत होने वाली धार्मिक भावना ही अश्लील हो चली है.

कलम और कूची चलाने वालों का फ़ैसला डंडा चलाने वालों के हाथ में सौंपने से ज़्यादा ख़तरनाक बात किसी भी सभ्य समाज के लिए कोई और नहीं हो सकती. चंद्रमोहन के चित्र अश्लील हैं या नहीं, यह अलग मुद्दा है. इस पर वैचारिक बहस हो सकती है लेकिन फौजदारी नहीं.

जिस रफ़्तार से लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं वह निश्चित रूप से चिंता की बात है. जिनकी भावनाएँ आहत हो रही हैं उन्हें पता लगाने की ज़रूरत है, उनकी भावनाओं में कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं है.

हिंदू पौराणिक ग्रंथों को पलटते ही पता चलता है कि उनमें काम और कामुकता को लेकर कोई झेंप नहीं है, देवताओं और देवियों का पर्याप्त सेनसुअल चित्रण किया गया है, अगर आप उसी वर्णन को पेंटिंग के रूप में उकेरना चाहेंगे तो 'धर्म के रक्षक' आपको बख़्शेंगे नहीं.

विस्तार में जाने का कोई मतलब नहीं है लेकिन देवराज इंद्र से लेकर प्रभु विष्णु तक की कामक्रीड़ाओं का ग्राफ़िक वर्णन उन ग्रंथों में है जिन पर अक्षत-फूल चढ़ाए जाते हैं. देवी लक्ष्मी की कमनीय कटि और विपुल वक्षों का विशद वर्णन श्रीसूक्त में है जो एक वैदिक स्तुति है.

शिव लिंग की पूजा करने वाले हिंदू समाज में लैंगिकता, नग्नता को लेकर ऐसी वर्जना समझ में नहीं आती है. वैसे भी, नग्नता हमेशा अश्लीलता नहीं होती, मंदिर में माँ काली की नग्न मूर्ति अश्लील नहीं लगती, दिगंबर जैन मुनि किसी को अश्लील नहीं लगते लेकिन एक कलाकार की कल्पना अचनाक अश्लील हो जाती है. बहरहाल, यहाँ मुद्दा कुछ और है.

हिंदू संस्कृति में काम को लेकर जो उन्मुक्तता रही है वह शर्माने या झेंपने की नहीं, समझने और सम्मान करने की चीज़ है. जो कुछ आपके पुण्य ग्रंथों में लिखा है अगर वह किसी रूप में सामने आता है तो उसमें घबराने या आहत होने की क्या बात है?

देवी और देवताओं का हमारी संस्कृति ने मानवीकरण किया, सखाभाव और प्रेमभाव से भक्ति की, अब अगर ऐसा होगा तो भक्त अपनी काम भावनाओं को कूड़ेदान में नहीं फेंक देगा, बल्कि जिस ईश्वर को उसने इतना सुंदर-मोहक-आकर्षक बनाया है उसमें काम का दिखना एकदम स्वाभाविक बात है.

सुनील गंगोपाध्याय विवाद भी कुछ ऐसा ही था. मैंने देवियों की मूर्तियाँ बनते देखी हैं, उन्हें निरावरण देखा है, वे निश्चित तौर पर बेहद आकर्षक होती हैं और किसी किशोर का उन्हें सुंदर देह की तरह देखना सहज संभव है. श्रद्धा, सम्मान, प्रेम और कामुकता सब एक ही दिमाग़ में उपजते हैं और एक-दूसरे में
घुलमिल जाते हैं, कौन कहाँ शुरू होता है, कहाँ ख़त्म, यह कहना मुश्किल है. कलाकार उसे ज़ाहिर करने की कोशिश करता है, हिम्मत करता है. हम-आप दबाकर बैठ जाते हैं. उस पर डंडे चलाने के बदले उसे समझने की कोशिश करिए.

सुनील गंगोपाध्याय जैसे रचनाकार की इस हिम्मत को मानसिक विकृति या सनसनी फैलाने का हथकंडा कह देना बहुत आसान है. उसे समझने के लिए थोड़ी बुद्धि, थोड़ी संवेदना और रटी-रटाई बातों से परे देखने का साहस चाहिए. हर मामले में हर कलाकार सही है और विरोध करने वाले ग़लत हैं, ऐसा नहीं हो सकता. मगर सत्ता और क़ानून का कला के क्षेत्र में कोई दख़ल नहीं हो सकता. कलाकारों और कला के पारखियों को देखने-परखने दीजिए, आपको अच्छा लगता है तो देखिए, नहीं लगता है तो मत देखिए.

जो लोग धार्मिक भावनाओं के आहत होने की दुहाई देते हैं उनका पहला तर्क होता है, 'मुसलमानों का बनाकर दिखाओ'...जो लोग चाहते हैं कि इस्लाम की तरह सारे कलाकार हिंदू धर्म के सिपाहियों से भी डरने लगें और उनके प्रतीकों से दूर रहें, वे एक अधोगामी प्रतियोगिता में पड़ रहे हैं जो उन्हें वहीं ले
जाएगी जहाँ उन्मादी मुसलमान ही नहीं, हर धर्म के जाहिल लोग हैं.

सहिष्णु होने का दावा करने वाले हिंदु आज मुसलमानों के उन्मादी तबक़े से लगातार प्रेरणा ले रहे हैं. वे अक्सर मिसाल देते हैं कि कार्टून विवाद में मुसलमानों ने दुनिया को हिला दिया, हिंदू ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि वे एकजुट नहीं हैं, अपने धर्म की अस्मिता को लेकर आक्रामक नहीं हैं... वगैरह-वगैरह. ऐसा लगता है मानो आहत होने और बुरी तरह आहत होने की होड़ सी लगी है.

अलग-अलग धर्मों की तुलना नहीं करनी चाहिए, इसका कोई सकारात्मक नतीजा शायद ही कभी निकला हो. हिंदु धर्म की तुलना वैसे भी दूसरे धर्मों से नहीं हो सकती क्योंकि अन्य धर्मों की तरह उसमें न तो एक किताब है, न एक या कुछेक पैगंबर. उसके कोई तय मानदंड नहीं हैं, उसने मंदिरों की दीवारों
पर यौनशिक्षा दी...कामसूत्र और ब्रह्मचर्य का एक जैसा सम्मान रहा. ऐसा इसलिए हुआ कि हज़ारों वर्षों से विचारों का निर्बाध संप्रेषण होता रहा, समय के साथ सीमाएँ टूटती रहीं, कला-संगीत-साहित्य-विचारों पर ताले नहीं जड़े गए.

मेरी भी धार्मिक भावनाएँ हैं और उन्हें भी ठेस पहुँचती है जब मेरे धर्म की सीमा तय करने की कोशिश कोई जाहिल करता है.

12 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

आपकी बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हो सका. जाहिलों को धर्म की सीमा तय नहीं करने दी जाए, यहाँ तक तो ठीक है...लेकिन विद्वजनों को सारी सीमाएँ क्यों लाँघने दी जाए?

भावनाएँ व्यक्तिगत भी होती हैं और सामूहिक या सामुदायिक भी. आपकी व्यक्तिगत भावनाएँ यदि आप नहीं चाहें तो कोई नहीं आहत कर सकता. आप अपने-आपको लिबरल बना लें..बिल्कुल बिंदास..आपकी भावनाओं को आहत करना किसी के लिए भी बड़ा मुश्किल हो जाएगा.

लेकिन किसी समाज या समुदाय की भावनाओं का मसला थोड़ा अलग है. ऐसी भावनाएँ ज़रा ज़्यादा ही संवेदनशील होती हैं. इन भावनाओं का संतुलन बड़ा ही नाजुक होता है. यदि इसे छेड़ने से मानव जाति का कोई बड़ा फ़ायदा नहीं हो रहा हो, तो बेहतर है कि संतुलन बना रहने दिया जाए.

रही बात देवी-देवताओं के नग्न चित्रण की, तो ऐसे कलाकारों के समर्थन में बहुत ही घिसेपिटे और इतिहास से चुन-चुनकर लाए गए तर्क दिए जाते हैं, जैसे-खजुराहो, कामसूत्र या पुराण-उपनिषद. समकालिक उदाहरण और तर्क या तो बिल्कुल ही नहीं हैं, या नहीं के बराबर हैं..बिल्कुल उथले हैं.

आप तो यूरोप में हैं. आप देखते ही होंगे कि वहाँ के जनप्रिय अख़बारों के लिए किसी भी चीज़ की सीमा नहीं होती. अनाप-शनाप-बकवास...खूब छपता है. लेकिन जब पैगम्बर पर कार्टूनों की बात आई तो ख़बरों के संदर्भ के रूप में ही सही पूरे यूरोप में दो-चार अख़बारों ने ही विवादास्पद कार्टूनों में सो कुछ छापे. बाकी ने विवेक से काम लिया, हालाँकि कोई क़ानूनी बंदिश नहीं थी,...और न ही सरकारों ने कोई दबाव डाला था.

धर्म का माखौल उड़ाने की जितनी अनुमति हिंदू मत में है, उतना कहीं और नहीं. लेकिन कहीं न कहीं तो कहना ही पड़ेगा कि...अब बस भी करो, क्योंकि इसके बिना भी कला को सातवें आसमान पर ले जाया जा सकता है!

हुसैन की ही बात करें तो वे जितनी सहजता से देवियों की नग्न-कला-अराधना कर सकते हैं, माधुरी दीक्षित की नहीं...हालाँकि वे माधुरी का स्वघोषित दीवाना हैं.

-आपका बेनाम पाठक

अनामदास ने कहा…

प्रिय अनाम जी
आपकी टिप्पणी के लिए बहुत शुक्रिया. अच्छा लगा इसलिए कि आपने बहुत करीने से अपने विचार रखे हैं. आप मुझसे पूरी तरह सहमत नहीं हो सके, कोई बात नहीं लेकिन आपने तार्किक तरीक़े से अपने विचार रखे हैं जिसका हमेशा स्वागत है. बल्कि मेरी राय है कि आपको ब्लॉग लिखना चाहिए, इससे ब्लॉगिंग समृद्ध होगी.

हिंदू संस्कृति एक विराट संस्कृति है जिसने सनातन धर्म, मूर्ति पूजा और वेदों के घोर निंदक गौतम बुद्ध को भी अपना दसवाँ अवतार बना लिया क्योंकि उन्होंने अपनी बात अच्छी तरह सामने रखी.

हिंदू संस्कृति के मूल चरित्र में और उसके अनूठेपन में मेरी गहरी आस्था और श्रद्धा है, धर्म के रक्षकों से कहीं ज़्यादा. मुझे हमेशा तकलीफ़ होती है जब उसके मूल चरित्र को बदलकर उसे एक हिंदू बहुसंख्यक देश में आक्रामक बनाने की कोशिश की जाती है.

आपका ईमेल विचारोत्तेजक है, अच्छा लिखें. और टिप्पणियाँ करें, ज़रूर करें, आलोचना भी करें,मुझे ख़ुशी होगी.

अनामदास

azdak ने कहा…

लोग बहस करें, विचार करें.. आज सबसे बड़ी समस्‍या तो यही है कि मुंह खोलने की बजाय लोग हाथ छोड़ रहे हैं. हिन्‍दु धर्म के विविध रूप, विस्‍तार, समन्‍वयवादी और ग्रहणशील प्रकृति की तो कोई आज बात ही नहीं कर रहा.. बिना इस्‍लामी मज़हब के आक्रामक तेवरों के बराबर खड़े किये बिना, और चेहरों पर वैसी ही गर्मी लाये बिना भाइयों को चैन ही नहीं पड़ रहा.. यह और जो कुछ हो, हिन्‍दु मत तो नहीं ही है..
आप तरल-गरल कलम चलाते रहिये.

अभय तिवारी ने कहा…

भाई लोगों.. आप लोग अच्छी अच्छी बहस करें अच्छी बात है.. मैं भी करना चाहता हूँ.. मगर उस समाज में जहाँ हमें ये आज़ादी हो..मुद्दा यहाँ इस शालीन वार्तालाप का नहीं है.. मुद्दा ये है कि आप हमें किस तरह के समाज की ओर धकेल रहे हैं.. जहाँ अपराधी तो लाल बत्ती की गाड़ियों में घूमते हैं और सरकार कहला रहे हैं .. उनकी हाँ या ना से का़नून बन रहे है.. और कलाकार को मुँह खोलते ही अधम पापी घोर अपराधी कह कर सभ्य समाज की सीमाओं से दूर जेल में क़ैद किया जा रहा है..
आप को कुछ विसंगति दिख रही है जनाब बेनाम..? जितनी महीन चर्चा आप कला के स्तर की कर रहे हैं.. उतनी महीन चर्चा उन लात घूँसो की भी करते जो चन्द्रमोहन के हिस्से आये होंगे.. तो ज़रा समूची तस्वीर उभरती..
अब बस करो कहने का भी एक तरीका होता है.. जिस तरह से आप अपनी बच्चे को चॉकलेट खाने से रोकते हैं.. क्या उसी तरह से अपनी नानी को भी रोकेंगे,जिन्हे चीनी ज़हर हो चुकी है..? क्या उन्हे भी दो तमाचे मार कर कहेंगे.. नानी तुम बहुत नालायक हो..?
और आप इतने संतुलित शब्दों के पीछे से कह क्या रहे हैं जनाब बेनाम.. कि चन्द्रमोहन के साथ जो हुआ ठीक हुआ.. अब आप की इस बात से मैं इतना आहत हो जाऊँ कि आप को आपके बेनामियत से बाहर निकाल कर थुर दूँ.. और फिर चार तरह की धारा लगा के जेल में भी डलवा दूँ.. तो कैसा रहे.. क्योंकि आप जहाँ हैं वहाँ मेरी चलती है.. ये जिस तरह का अपशाविक व्यवहार होगा.. मुद्दा यहाँ यह है..
सही गलत का फ़ैसला एक सभ्य समाज में किया जा सकता है.. ये सभ्यता नहीं है..आप बन्दर के हाथ मॆं उस्तरा देने की वकालत कर रहे हैं..आज आप को ठीक लग रहा है.. क्योंकि वो मेरा गला काट रहा है जिस से आप असहमत हैं.. कल को वो अपनी तरंग में आपका गला और न जाने क्या क्या काटेगा.. और तब आप को बचाने वाला कोई नहीं होगा क्यों कि जो लोग प्रतिरोध कर सकते थे.. उन्हे सबसे पहले मारा गया..

संजय बेंगाणी ने कहा…

जब चोट लगती है, दर्द भी होता है. हिन्दू ही नहीं अब ईसाई भी विरोध कर रहे है.

Jitendra Chaudhary ने कहा…

अनामदास जी,
आपने अपनी बात बहुत सही ढंग से रखी।

दरअसल हम दोगले चरित्र के लोग है। हम यौन सम्बंधों की बात पब्लिक मे नही करना चाहते, लेकिन बच्चे पैदा करने मे सबसे आगे है।

नग्न देवी देवताओं की पूजा करने मे हमे कोई आपत्ति नही, लेकिन यदि कोई उनके चित्र बनाए तो हमे आपत्ति हो जाती है।

इस विषय पर विस्तार से मैने अपने विचार "अतिआदर्श वादी संस्कार भाग १ और भाग २ " मे व्यक्त किए थे।

बेनामी ने कहा…

भारतीय शिल्प और भित्ति चित्र भी नष्ट कर दिये जाएँगे यदि इन सौन्दर्यबोधहीन हिटलर-प्रेमी हाफ़ पैन्टियों की चले । स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की बाबत इनकी दृष्टि का दृष्टान्त मिलता है जब गोलवलकर से एक 'प्रचारक' ने शादी की अनुमति माँगी । गोलवलकर ने उस प्रचारक से कहा , 'यूँ तो कुत्ते भी निर्वाह कर लेते हैं'। तब प्रचारकों के विवाह की मनाही थी।
कमर से चौड़ी मोहरी वाली हाफ़ पैन्ट मुझे अश्लील लगती है लेकिन पहनने वालों के साथ-साथ पहनाने वालों के लिए 'सुविधाजनक' है।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सुनील गंगोपाध्याय का नाम क्यों, हुसैन का नाम लेकर लिखिये. सवाल नग्नता का नहीं कुत्सितता का है.
ये पहले टिप्पणीकार इतना बढ़िया लिखे हैं. बेनाम क्यों लिखे? इनकी तो कलम चूमने लायक है.
कहीं कोई टिप्पणी पढ़ी थी - अपनी अम्मा की तस्वीर क्यों नहीं बनाते हुसैन. टिप्पणी हुसैन की कलाकारी जैसी अश्लील थी, पर थी टक्कर की.

बेनामी ने कहा…

अब बस करियेगा पण्डेजी,ऊपर जो लिखा है अनामदासजी ने, उससे तो आप सबक ले सकते है..

अनामदास ने कहा…

ज्ञानदत्त जी
मैने सुनील गंगोपाध्याय का ज़िक्र किया लेकिन हुसैन का नही, इसके पीछे कोई मंशा नहीं थी. चलिए अगर आपको संतुष्टि मिलती है तो सुनील को हुसैन पढ़ लीजिए, मुझे कोई एतराज़ नहीं है. आप जिसे कुत्सित कह रहे हैं वह किसी के लिए कला है, अब फ़ैसला कौन करेगा कि क्या कुत्सित है और क्या नहीं. आप चाहते हैं कि लोकतंत्र में इसका फ़ैसला थानेदार करें और डंडे के ज़ोर पर करें?
एक कलाकार को एक पेंटिंग बनाने के लिए जेल में डालना और पिटाई करना आपकी दृष्टि में सही क़दम हो सकता है मेरी दृष्टि में नहीं. सारी बहस इस बात की नहीं है कि वह पेंटिंग या हुसैन की पेंटिंग कुत्सित है या नहीं, बहस इस बात की है कि लोकतंत्र में कला के प्रति एतराज़ जताने का तरीक़ा वही नहीं हो सकता जो एक गुंडे-मवाली से निबटने के लिए होता है. पढ़े लिखे लोगों का नैतिक दायित्तव है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ें हों, इस्लाम की भर्त्सना करने वाले रूश्दी के समर्थन में आप किस मुँह से खड़े होंगे अगर आप बड़ौदा के चंद्रमोहन के साथ नहीं खड़े हैं. क्या रूश्दी के साथ वही व्यवहार चाहते हैं जो हुसैन के साथ? अगर हाँ तो भी आप लोकतंत्र के हितैषी नहीं हैं, अगर रूश्दी के समर्थक और चंद्रप्रकाश के विरोधी हैं तो बताइए कि सांप्रदायिकता और क्य होती है?

बेनामी ने कहा…

अनामदास जी और अभय जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ कि गुंडागर्दी कभी भी ठीक नहीं हो सकती. चाहे वो धर्म के नाम पर हो, जात के नाम पर, या फिर किसी वाद(समाजवाद,साम्यवाद,राष्ट्रवाद आदि) के नाम पर.

लेकिन जहाँ तक कुकृति और कलाकृति की बात है तो कम से कम सार्वजनिक मंच पर दोनों में भेद बेहद ज़रूरी है. कौन तय करेगा अंतर? घर में तो परंपराओं के चलते इस तरह के निर्णय स्वयंमेव हो जाते हैं. लेकिन सार्वजनिक मंच पर हर समाज कहीं न कहीं लकीर खींचता है. कौन है समाज? अकेले दम पर न तो दक्षिणपंथी, न वामपंथी, और न ही पोंगापंथी. सरकार, न्यायपालिका या कोई अन्य निर्वाचित संस्था जो क़ानून या परंपरा के अनुसार समाज का प्रतिनिधि या अभिभावक मानी जाती हो, उसके विवेक पर ही भरोसा करना पड़ेगा. उसका विवेक गड़बड़ लग रहा हो, अगले चुनाव में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करें. तब तक करें इंतजार.

मैं तो भविष्य की कल्पना कर रहा हूँ. धीरे-धीरे बाज़ारवाद जब समाज के पोर-पोर में पैठेगा. तब हुसैन या चंद्रप्रकाश या रुश्दी की कृतियों पर विचार करने के लिए आमजनों के पास समय ही नहीं होगा. बाज़ारवाद चहुंदिश छा जाएगा. झोलों-परदों के अलावा जूते-चप्पलों पर भी देवी-देवताओं के चित्र उकेरे जा सकेंगे, राष्ट्रीय ध्वज के कच्छे बिकेंगे, साम्यवादियों और पूँजीवादियों में SEZ लगाने की होड़ रहेगी. सैलानियों को लुभाने के लिए नए खजुराहो बसाए जाएँगे. सरकार सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध हटाने के लिए प्रगतिशीलों के आंदोलन का इंतजार नही करेगी. आज की विरोधी विचारधाराएँ परस्पर आलिंगनबद्ध होंगी. नवविद्वतजनों की सभा में डार्विन, मार्क्स, तुलसीदास जैसों का माखौल उड़ाया जाएगा. मज़ा आएगा!

Vivek Gupta ने कहा…

मेरा मानना है कि सभी समाज में कुछ लोग ऎसे होते हैं जो हर बात को दिल पे ले लेते हैं माने की बहुत जज्बाती होते हैं । अगर ये लोग दूसरों की गल्तियों को छोटे भाई की गल्ती मान कर माफ कर दें तो समस्या स्वयं हल हो जायेगी ।


विवेक