मौसम यही था, बस उमर कुछ और थी. दीवाली से पहले की हल्की ठंड, बारिश की टिपिर-टिपिर से राहत. अच्छी-सी धूप, मीठा-मीठा गन्ना बिकने लगा था.
बारिश में जमी काई धूप से सूखकर झड़ गई और सारे काले-भूरे भुए तितलियाँ बनकर उड़ गए, बरसों बाद हासिल ज्ञान से पता चला कि उस एकरंगे मटमैले फड़फड़ाते जीव को तितली कहलाने का गौरव हासिल नहीं, उसे मॉथ कहते हैं.
ऐसे मौसम में 14 साल की उम्र में छत पर पी गई चाय का मज़ा लंदन के किसी बेहतरीन पब की बियर से बेहतर है, उम्र का अपना नशा होता है जिस पर बियर की बोतल की तरह एल्कोहल का परसेंट नहीं लिखा होता.
उम्र का नशा ईरान-सऊदी अरब और वेटिकन में भी होता है जहाँ ज्यादातर ऐसी चीज़ों की मनाही होती है जो अच्छी लगती हैं. मगर भारत के एक क़स्बे में निम्न मध्यवर्गीय परिवेश में जहाँ आपका परिवार दो-तीन पीढ़ियों से रहता है वहाँ या तो दीदियाँ होती हैं या आप भइया होते हैं.
ऐसे ही एक अच्छे से मुहल्ले में, अच्छे से मौसम में एक अच्छी सी लड़की आई, कहीं बाहर से यानी उसके दीदी होने या मेरे भइया होने का कोई अंदेशा नहीं था.
दसवीं क्लास में पढ़ने वाले लड़के ने उसे बालकनी पर खड़े देखा, ख़ुद को देखते हुए देखा, वह अपनी छत पर गया, दोनों ने एक-दूसरे को देखा, बस देखा, खूब देखा. लड़की तो याद है लेकिन उसका चेहरा नहीं.
लड़के ने पहली बार किसी लड़की को लड़की की तरह देखा और शायद लड़की ने भी जाने-अनजाने ऐसा ही किया, दो-तीन सौ फुट की दूरी से.
उसके बाद ब्रश, चाय, नाश्ता, पढ़ाई सब छत पर. सुबह से लेकर सूरज ढलने तक. आँखों-आँखों में भी नहीं, सब दो आकृतियों में. काफ़ी कुछ इंटरनेट के आभासी रोमांस की तरह, बस कोई चैट या ईमेल नहीं, बाक़ी सब वैसा ही, दूर से कल्पना का प्यार.
अपनी सबसे अच्छी कमीज़ पहनकर, किताबें लिए धूप खिलते ही छत पर पहुँचना, उसका बालकनी में आना, मुझे थोड़ी देर देखना, फिर अचानक चले जाना, वापस आना, सूरज ढलने तक बार-बार.
पंद्रह दिन हो गए, घर में पढ़ाई के प्रति मेरे लगन की तारीफ़ हुई, मुझे मैट्रिक पास करने की चिंता हुई. सीढ़ियों पर आहट होते ही मैं किताबों में खो जाता और वह दूसरी ओर देखने लगती.
अफ़सोस कि उसे 'लड़की' लिखना पड़ रहा है जो बीस दिनों तक मेरे लिए सब कुछ थी और आज भी मैं उसे भूल नहीं सकता, बस नाम नहीं जानता.
दीवाली की अगली सुबह घर के सामने से रिक्शा गुज़रा, क्रिकेट का बल्ला हाथ से छूट गया, गेंद का होश नहीं रहा, वह जा रही थी, रिक्शे पर सूटकेस लदे थे, मतलब साफ़ था, उसने मुझे मुड़कर देखा, मैंने उसे पहली बार इतने क़रीब से देखा.
वह कहाँ से आई थी, पता नहीं, कहाँ जा रही थी, मालूम नहीं. फिर कभी नहीं दिखेगी इसका अहसास था. वह सुंदर थी या नहीं, मालूम नहीं. उसका चेहरा याद नहीं, लेकिन एक आकृति याद है जो मेरे मन पर उम्र ने खींची थी.
मैं बहुत रोया लेकिन सिर्फ़ थोड़ी देर के लिए जब तक भाई ने क्रिकेट खेलने के लिए बुला नहीं लिया.
एक लड़की, जो मेरी ज़िंदगी में न आई थी, न कभी मेरी ज़िंदगी से गई.
30 अक्तूबर, 2007
पहला नशा, उम्र भर का ख़ुमार
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20 टिप्पणियां:
बड़ी दर्द भरी दास्तां है भाई.
ऎसा उस उम्र में लगभग सभी के साथ ही होता है.
a romantic writeup !man ko chhoo gaya yah lalit lekh/chitthaa
बहुत तो नहीं, कुछ यादें हरी कर दीं मित्र, आपकी इस पोस्ट ने।
आज "प्रत्यक्षा" ब्लॉग पढ़ने पर भी एक ऐसी याद हरी हुई। कोई खास दिन है क्या?
भूली हुई यादों इतना न सताओ मेरे अनाम मित्र को..
जिन्दगी भर का खुमार काफ़ी व्यापक हो रहा है ।अविनाश और अनामदास ने शुरुआत की है। एक सुन्दर संग्रह ( पुस्तक चिट्ठा ) का इन्तेज़ार रहेगा ।
wah kya khoob crush tha. sweekar karne ke liye bdhai. sahi mayne me crush wahi hota hai jise samay ki parten bhi dhoomil na kar payen. maloom nahin woh khan hogi lekin yadi apka post pathegi to use bhi bhooli bisri yaden yaad aa jayengi
preeti
क्या बदलते मौसम का भी असर होता है? अक्सर पुरानी बातें मार्च-अप्रेल के दिनों में याद आती हैं या फिर हल्की सर्दी की कुनकुनी धूप में कभी फुरसत में बैठकर सोचते हैं तो एक फिल्म की तरह सब कुछ आँखों के आगे उमड़ने लगता है. कभी-कभी तो पत्तों की सरसराहट, हवा की आवाज़, शाम का कोई खास पल या फिर हलके अँधेरे में बनती-बिगड़ती आकृतियाँ तक किसी याद में खो जाने देने के लिए काफी होतीं हैं. हम औरतों को तो इतनी पाकीज़गी ओढ़नी पड़ती है कि पहला नशा जैसा हो भी तो उसे मानने से इनकार ही करना पड़ता है, उम्र के कई मुकाम पार करने के बाद भी . याद तो बहुत कुछ रहता है, लेकिन बस स्मृतियों तक ही उन्हें सीमित कर देना पड़ता है . आपकी २० दिनों की प्रेम कहानी पढकर कितना-कुछ तो याद आने लगा है ....
क्या बात है भाई ऐसा लग रहा है कि आपने मेरे बातें बयान कर दीं एक दम दिल को छू गया यह फसाना....
ओ मेरे होके भी मेरे न हुए
उनको अपना बना के देख लिया।
आप अगर उसका नाम-पता-शक्ल वगैरह नहीं बताना चाहते टू कोई बात नहीं. लेकिन यह झूठ बोलने की क्या जरूरत है की अब आप भूल गए. कोई आपसे कुछ कहेगा थोडे ही.
बहुत सही भाई साहब!!
आपकी इस एक पोस्ट पे ही जमाना लुटा देने का मन हो रहा है!!
Mere saath toh saal mein ye 2-3 baar hota tha!
अब बताइए साहब आप के अफ़साने ब्यां पर सब को अपने अपने दिन याद आ रहे हैं , हम सोच रहे है कि काश वो लड़की भी आप का ये पोस्ट पढ़ ले तो कैसा रहे, और फ़िर जवाब भी लिख दे तो हमारे लिए फ़िल्म पूरी हो न…ढ़ूढ़िए कहीं यहीं कहीं तो नही…सौ दो सौ गज की दूरी पर्…तेरे ब्लोग के सामने…।:)
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है...
हर किसी किशोर की कथा आपने बयान कर दी। शायद ही कोई होगा जो इस क्रश से न गुजरा हो।
बहुत बढ़िया तरीके से बताई कहानी । शायद ही कोई किशोर मन ऐसा होगा जिसने इस नई अनुभूति को अपने मन में उमड़ते ना अनुभव किया हो ।
घुघूती बासूती
आख़िरी टिप्पणी मेरी... लेकिन भई...(उच्छवास) क्या टिप्पणी करूँ.
पुरानी यादों को फिर से जीने, बुनने और दिलकश भावनाओं की रौ में सबको बहा ले जाने की आपकी इस कला के कद्रदान बढ़ते ही जा रहे हैं।
आप उन भावों को शब्दों में ढाल कर साकार कर देते हैं जो सबके भीतर बसे हैं लेकिन अंदर ही अंदर मचलते रहते हैं, छटपटाते रहते हैं, कभी शब्दों की धूप में निखर नहीं पाते।
आपको पढ़ते हुए हम हर बार समृद्ध होते हैं।
सृजनजी बहुत सही कह रहे है। कायल हुए जा रहे हैं सब और आप बहाए लिए जा रहे हैं उन्हें रूमानी कुंज गलिन में । वाह वाह, बहुत खूब।
ये वही पोस्ट है न जिसके बारे में हमारी करीब तीन-चार महिने पहले बात हुई थी ...अभी तो पड़ोस के कुछ और किस्से भी सामने आएंगे। उम्मीद से हैं :)
हमने तो अपनी कहानी कभी आपको नहीं बतायी, फ़िर आपको कैसे पता पडा? भई मान गये!
नहीं ये नहीं हो सकता.....ये मेरी कहानी कहॉ से लिख दी आपने...पर लिखा बिल्कुल सही है "एक लड़की, जो मेरी ज़िंदगी में न आई थी, न कभी मेरी ज़िंदगी से गई". ये तो बस दिल समझता है.
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