बाबा से एलर्जी या सच्चे लोकतंत्र का आग्रह, आपके भीतर कौन सी भावना अधिक बलवती है?
अनेक बुद्धिजीवी बाबा को दुत्कारने को अपना पहला कर्तव्य मान बैठे हैं, बाबा के पास बहुत सारे सवालों के जवाब नहीं है लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ऐसी मुहिम चलाने कोई और आगे क्यों नहीं आया, इस सवाल का जवाब भी उन्हें ख़ुद से पूछना चाहिए.
भारत की जनता हमेशा से संतों, भिक्षुओं, सूफ़ियों, दरवेशों की सुनती रही है. उनकी सहज बुद्धि कहती है, उसकी बात सुनो जो अपने नफ़ा-नुक़सान के फेर में नहीं है.
ऋषियों की बात बहुत पुरानी है. बुद्ध, शंकराचार्य, गांधी ही नहीं, बिनोबा, जयप्रकाश तक, अलग-अलग दौर में भारत की जनता ऐसे ही लोगों की सुनती रही है जो नेता नहीं, बल्कि संत दिखते हों.
या फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिनका राज चल रहा हो, शायद यहाँ भी यही सोच है कि व्यक्ति संयोगवश एक ख़ास ख़ानदान में पैदा हुआ है, अपने फ़ायदे के लिए (नीचे से ऊपर आने की कोशिश में) कुछ नहीं कह-कर रहा है.
अनेक बार धोखा खाने के बावजूद ज्यादातर मौक़ों पर सामूहिक-बुद्धिमत्ता (कलेक्टिव विज़डम) कारगर रही है, बाबा रामदेव के मामले में होगी या नहीं, कोई नहीं कह सकता.
बाबा मुझे शुरू से ही पसंद नहीं हैं, बाबा के ख़िलाफ़ ढेरों सवाल उठाए जा सकते हैं, किसके ख़िलाफ़ नहीं उठाए जा सकते, उठाने भी चाहिए, लोकतंत्र का यही तकाज़ा है.
महात्मा गांधी के नाम से जुड़ी सत्ताधारी पार्टी ने उन्हीं की तरह बिन-सिला कपड़ा पहनने वाले आदमी को रातोंरात जिस तरह अगवा किया उससे घबराहट, डर, सत्ता का मद, बेवकूफ़ी, अपरिपक्वता आदि-आदि का ही सबूत मिलता है.
भारत जैसे विविधता वाले देश में योग गुरू होने की वजह से बाबा रामदेव सरीखे लोग हमेशा शंका की नज़र से देखे जाएँगे. उनसे आरक्षण, पर्यावरण, भूमंडलीकरण, सांप्रदायिकता जैसे पेचीदा राजनीतिक मुद्दों पर विवादों से परे अकादमिक नज़रिया रखने की आशा करना भी फ़ालतू है.
विवादों से बचकर राजनीति करने की नटविद्या वे शायद आगे चलकर सीखें, या न भी सीख पाएँ, लेकिन इस समय वे जो कह रहे हैं उसमें ऐसा क्या है जो भारत का लगभग हर आदमी नहीं सुनना चाहता, वैसे भारत में अपवाद भी लाखों में होते हैं (जनसंख्या के अनुपात में).
फ़िलहाल मामला भ्रष्टाचार का है, कांग्रेस का प्रबल विश्वास है कि नौ प्रतिशत विकास दर की नाव जिस नदी में तैर रही है उसे कोई सूखने नहीं देना चाहता इसलिए बाबा रामदेव की बात पर लोग ज्यादा कान नहीं देंगे.
उन्हें ये भी साफ़ दिख रहा है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की सदाक़त और बूता मुख्यधारा की किसी पार्टी में नहीं है, अगर बोलने के लिए लब आज़ाद होते तो घोटालों की फ़़ेहरिस्त से लैस विपक्ष मिमियाने से आगे ज़रूर कुछ करता.
इससे पहले जब भ्रष्टाचार राष्ट्रीय मुद्दा बना तो वीपी सिंह के नेतृत्व में ("राजा नहीं, फकीर है" का नारा याद करिए), जिन पर आजीवन भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा, लोगों को उनसे बाक़ी जो भी शिकायतें रही हों.
यही वजह है कि अन्ना हज़ारे, बाबा रामदेव जैसे लोग आगे आए हैं जो राजनीति के मौजूदा खाँचे में फिट नहीं होते, ग्लोबाइज़्ड दुनिया में खुद आर्थिक शक्ति बनने और इंडिया को बनाने की रेस में नहीं हैं.
बाबा रामदेव, अन्ना हज़ारे, मेधा पाटकर, अरुंधति रॉय, विनायक सेन, इरोम शर्मिला और हज़ारों गुमनाम-बेनाम-कमनाम लोग जो कह रहे हैं, उसमें अंतर हो सकता है, लेकिन एक बात समान है कि वे मौजूदा सत्ता, व्यवस्था, कार्यप्रणाली, संस्कृति, आचरण, नियम-क़ानून और संवेदनाओं पर सवाल उठा रहे हैं.
उनसे आप सहमत भी हो सकते हैं, असहमत भी, मगर अर्मत्य सेन से उधार लेकर कहूँ तो एक 'आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन' होने के नाते आप कैसे उन्हें पुलिसिया डंडे से चुप कराए जाने को सहन कर सकते हैं.
बहुत ध्यान से सुनना चाहिए उनको जो आपके भले की बात कर रहे हों क्योंकि वही आपका बहुत बड़ा नुक़सान कर सकते हैं, बहुत ध्यान सुनना चाहिए उनको जिनकी बात रास नहीं आ रही हो क्योंकि वहीं कोई फ़ायदा छिपा हो सकता है.
बोलना और सुनना दोनों चाहिए कि उसके बिना लोकतंत्र नहीं चलता.
06 जून, 2011
28 फ़रवरी, 2011
बियाह बिहार में
एलबम पार्ट वन
फोटो 1-- घर जगमग, हेलोजेन के लाइट, गाँछ पर लड़ी, चेहरों पर खुशी, साज सिंगार, जाड़ा में शिफॉन के साड़ी पर कत्थई कार्डिगन, लीला बुआ, अल्पना दीदी और चंपाकली छमक छल्लो
फोटो 2-- जिनगी के अरमान पूरा होए के खुशी से दमकत चेहरा, नारंगी साड़ी पियर सेनूर (मे बी अदर वे राउंड), भर-भर आँख काजर, केहुनी तक लहठी, गुलाबी टोकरी में चुनरी से ढाँकल पूजा के सामान, डेराइल दुल्हिन के पीछे खड़ा इस्माट भउजी
फोटो 3-- बुढ़िया नानी, टूटल चस्मा, दाँत में फाँक, मचकल मचिया, केयरिंग भतीज-पतोह, पिलेट में अकेला उदास लड्डू
फोटो 4-- लाल पियर पंडाल, दवाई वाला टुन्नू, नौकरी खोजे वाला लल्लन, गोपेसरा एन्ने काहे झांक रहा है...टोकरी ले जा रहा फगुनी, टेंट हाउस वाला जइसा बोला था, सोभ रहा है, डंडी न मारिस है...
फोटो 5-- तीन आदमी, ई कोट वाला, दिल्ली से आए हैं, फुलेसर जी के दमाद आईसीआईसीआई बैंक दिल्ली में हैं, दुसरका बुल्लु कमीज वाला आईएस का तय्यारी में है और कोना में नीलेश भइया हैं सीसीटीवी में हैं
फोटो 6-- राज दरबार टाइप का बनाया है, फूल कलकत्ता से लाया है, का जाने झूठ बोल रहा होगा लेकिन एकदम सेंट आ रहा था, दुल्हा-दुल्हिन का कुर्सी है, एके दिन का बात है लेकिन सबका अपना अरमान होता है, है कि नहीं?
फोटो 7-- खाना लग गया है, तरबूज्जा के सारस बनाया है अलबत्त, पिलेट काँच का नहीं है, "जगदंबा बाबू के बेटवा के बियाह में तो दस-बीस गो तो धोनही में टूट गया था, मेलामाइन है, टूटता नहीं है, टेंटहाउस वाला चालू है, एजी धक्का मत दीजिए, ढेर भुखाइल हैं तो आप ही जाइए पहिले...
फ़ोटो 8-- बरदी वाला बेटर लगइले हैं, अरे, इ तो रेकसा वाला फेकुआ के बेटा है, पिलेटवा लेके कहवाँ बइठे जी, बड़ा शहर में सब काम खड़े खड़े होता है का? , जब से इनका बेटवा बंबई गया है तब से रंग ढंग बदल गया है
फोटो 9-- एगो कट्टल बाल वाली है, तीन आदमी कनखी से देख रहा है, उसकी सहेली मुँह तोपके हँस रही है, दूर में दिल्ली जाने की तैयारी कर रहा लड़का है जो कनखी से नहीं, सीधे देख रहा है, वह इस फोटो में नहीं है
फोटो 10-- रात के शामियाना में काला चश्मा, लोकल रजनीकांत, पीला धारीवाली पैंट और नीला कोट, अंदर से झाँकती बैंगनी टी-शर्ट, हम किसी से कम नहीं वाली अदा, दबंग हिट होने के बाद आया नया कॉन्फिडेंस, दो-तीन लोकल फ़ैन भी
फोटो 11-- आटा चक्की वाला का बेटवा बीडियो कैमरा लेके आया था, रिकार्डिंग के लिए तो टुन्नुवा को कान्ट्रेक्ट देल्ले था पहिले से, अरे कैमरे देखाने लाया था, अरे नहीं, मुन्ना का दोस्त है इसलिए, पइसा बहुत है लेकिन देखाता नहीं है जादा....
फोटो 12-- मरकरी के नीचे बइठे थे, चेहरा साफ़ नहीं लउक रहा है, ढेर लाइट हो गया, दया मास्टर जी, कन्हाई चच्चा, शिवबचन जी और के जाने कउन है...
फोटो 13-- कोई बोला नहीं, रोसड़ा वाले फुफ्फा बियाहो के दिन बिना दाढ़ी बइनले घूम रहे हैं, जनमासा में तो फिरी का नउआ बइठल था ऐँ, इन्हीं को एतना ठंडा लग रहा था और कौन सकरात के बाद मफलर बाँध के घूमता है... दरोगा जी ओने का देख रहे हैं??
फोटो 14-- लाल टोपी वाला लइका शायद कंचनवा का है, पता नहीं कौन गोदी में लेले है, रील बरबाद करते हैं, केकर केकर फोटो खींच लिया है....
फोटो 15-- ले, दुल्हिन के फोटो के पता नहीं, खाना का डोंगा में कैमरा गोत के फोटो खींचा है, ई का है जी??, नवरतन कोरमा, ऐं? सलाद नहीं सैलेड कह रहा था कोई बरियाती...
फोटो 16-- पाँच आदमी खड़े हैं, एक तन के, एक भौंचक, एक उदास, एक सजग, एक उदासीन....
फोटो 17---पाँचों उँगली में अँगुठी पहिने बिधायकी के उम्मीदवार जी, चारों तरफ़ सूरजमुखी की तरह मुँह उठाए लोग, एक चश्मे पर चमका फ्लैश, "लगन के टाइम बहुत शादी अटेंड करनी पड़ती है" वाला भाव, गुलाबजामुन का दोना लिए कोई, "आप आए, हम धन्य हुए" वाली मुद्रा में...
फोटो 18-- गपुआ को देखिए जरा, जर रहा है, बियाह नहीं न हुआ अबहीं ले, हाँ, हर जगहे मनहूस मुँह बनाके खड़ा हो जाता है, ई पीला धारी वाला दुर्गा चचा के बेटा है, ई साल आईआईटी में नहीं हुआ, लेकिन डोनेशन वाला में सौथ इंडिया जाने वाला है...
फोटो 19-- भोला चाचा, रिटायर हो गए हैं लेकिन अफसरी रुआब अबइहों ले है, गंभीर आदमी हैं, पीछे तिनकौड़ी साहू, बड़ा बाबू, बुच्चन जी और उनके साढू जो लल्लन जी के मउसेरा भाई भी हैं...
फोटो 20-- शिवगंगा बैंड, माथे पर लैट उठाए औरतें, गुलाब से सजी गाड़ी, गले में गेंदे का हार पहने बराती, तनकर चलते मउसा जी, लाइट में हाइलाइट होता बीबीजे कोचिंग सेंटर का विज्ञापन
फोटो 21-- अरे, पाँच-छौ गो नाती-पोता के साथ आए थे फुलेसर महराज, नहीं सुधरेंगे, एकवायन रूपया असूल करने के चक्कर में होंगे, देखिए कुरसिए के नीचे कचरा बिग रहा है, कोई दोसरा के भी तो हो सकता है ऊ कचरा...
फोटो 22-- अपनी पम्मी कितनी सुंदर दिख रही है, अगर यही फोटो भेज दिया जाए तो तुरंत बियाह ठीक हो जाएगा, लल्लनवा पाकेट में हाथ रखके खड़ा है, लगता है बहुत पइसा है पाकिट में....
फोटो 23-- वही हम कहें, जैमाल वाला फोटो कहाँ गया, ई रहा, लैट कम है, चेहरा पर नहीं हैॉ, ठीक-ठीक है, नेचुरल है, दिख तो रहा है....
फोटो 24-- क्लोज अप, एक दम्मे रवीना टंडन टाइप, दुर. आपको कोई और नहीं मिला था...
कच्ची और विदाई वाला दूसरा एलबम में है, दुल्हा तो ई एलबम में हइये नई है...
फोटो 1-- घर जगमग, हेलोजेन के लाइट, गाँछ पर लड़ी, चेहरों पर खुशी, साज सिंगार, जाड़ा में शिफॉन के साड़ी पर कत्थई कार्डिगन, लीला बुआ, अल्पना दीदी और चंपाकली छमक छल्लो
फोटो 2-- जिनगी के अरमान पूरा होए के खुशी से दमकत चेहरा, नारंगी साड़ी पियर सेनूर (मे बी अदर वे राउंड), भर-भर आँख काजर, केहुनी तक लहठी, गुलाबी टोकरी में चुनरी से ढाँकल पूजा के सामान, डेराइल दुल्हिन के पीछे खड़ा इस्माट भउजी
फोटो 3-- बुढ़िया नानी, टूटल चस्मा, दाँत में फाँक, मचकल मचिया, केयरिंग भतीज-पतोह, पिलेट में अकेला उदास लड्डू
फोटो 4-- लाल पियर पंडाल, दवाई वाला टुन्नू, नौकरी खोजे वाला लल्लन, गोपेसरा एन्ने काहे झांक रहा है...टोकरी ले जा रहा फगुनी, टेंट हाउस वाला जइसा बोला था, सोभ रहा है, डंडी न मारिस है...
फोटो 5-- तीन आदमी, ई कोट वाला, दिल्ली से आए हैं, फुलेसर जी के दमाद आईसीआईसीआई बैंक दिल्ली में हैं, दुसरका बुल्लु कमीज वाला आईएस का तय्यारी में है और कोना में नीलेश भइया हैं सीसीटीवी में हैं
फोटो 6-- राज दरबार टाइप का बनाया है, फूल कलकत्ता से लाया है, का जाने झूठ बोल रहा होगा लेकिन एकदम सेंट आ रहा था, दुल्हा-दुल्हिन का कुर्सी है, एके दिन का बात है लेकिन सबका अपना अरमान होता है, है कि नहीं?
फोटो 7-- खाना लग गया है, तरबूज्जा के सारस बनाया है अलबत्त, पिलेट काँच का नहीं है, "जगदंबा बाबू के बेटवा के बियाह में तो दस-बीस गो तो धोनही में टूट गया था, मेलामाइन है, टूटता नहीं है, टेंटहाउस वाला चालू है, एजी धक्का मत दीजिए, ढेर भुखाइल हैं तो आप ही जाइए पहिले...
फ़ोटो 8-- बरदी वाला बेटर लगइले हैं, अरे, इ तो रेकसा वाला फेकुआ के बेटा है, पिलेटवा लेके कहवाँ बइठे जी, बड़ा शहर में सब काम खड़े खड़े होता है का? , जब से इनका बेटवा बंबई गया है तब से रंग ढंग बदल गया है
फोटो 9-- एगो कट्टल बाल वाली है, तीन आदमी कनखी से देख रहा है, उसकी सहेली मुँह तोपके हँस रही है, दूर में दिल्ली जाने की तैयारी कर रहा लड़का है जो कनखी से नहीं, सीधे देख रहा है, वह इस फोटो में नहीं है
फोटो 10-- रात के शामियाना में काला चश्मा, लोकल रजनीकांत, पीला धारीवाली पैंट और नीला कोट, अंदर से झाँकती बैंगनी टी-शर्ट, हम किसी से कम नहीं वाली अदा, दबंग हिट होने के बाद आया नया कॉन्फिडेंस, दो-तीन लोकल फ़ैन भी
फोटो 11-- आटा चक्की वाला का बेटवा बीडियो कैमरा लेके आया था, रिकार्डिंग के लिए तो टुन्नुवा को कान्ट्रेक्ट देल्ले था पहिले से, अरे कैमरे देखाने लाया था, अरे नहीं, मुन्ना का दोस्त है इसलिए, पइसा बहुत है लेकिन देखाता नहीं है जादा....
फोटो 12-- मरकरी के नीचे बइठे थे, चेहरा साफ़ नहीं लउक रहा है, ढेर लाइट हो गया, दया मास्टर जी, कन्हाई चच्चा, शिवबचन जी और के जाने कउन है...
फोटो 13-- कोई बोला नहीं, रोसड़ा वाले फुफ्फा बियाहो के दिन बिना दाढ़ी बइनले घूम रहे हैं, जनमासा में तो फिरी का नउआ बइठल था ऐँ, इन्हीं को एतना ठंडा लग रहा था और कौन सकरात के बाद मफलर बाँध के घूमता है... दरोगा जी ओने का देख रहे हैं??
फोटो 14-- लाल टोपी वाला लइका शायद कंचनवा का है, पता नहीं कौन गोदी में लेले है, रील बरबाद करते हैं, केकर केकर फोटो खींच लिया है....
फोटो 15-- ले, दुल्हिन के फोटो के पता नहीं, खाना का डोंगा में कैमरा गोत के फोटो खींचा है, ई का है जी??, नवरतन कोरमा, ऐं? सलाद नहीं सैलेड कह रहा था कोई बरियाती...
फोटो 16-- पाँच आदमी खड़े हैं, एक तन के, एक भौंचक, एक उदास, एक सजग, एक उदासीन....
फोटो 17---पाँचों उँगली में अँगुठी पहिने बिधायकी के उम्मीदवार जी, चारों तरफ़ सूरजमुखी की तरह मुँह उठाए लोग, एक चश्मे पर चमका फ्लैश, "लगन के टाइम बहुत शादी अटेंड करनी पड़ती है" वाला भाव, गुलाबजामुन का दोना लिए कोई, "आप आए, हम धन्य हुए" वाली मुद्रा में...
फोटो 18-- गपुआ को देखिए जरा, जर रहा है, बियाह नहीं न हुआ अबहीं ले, हाँ, हर जगहे मनहूस मुँह बनाके खड़ा हो जाता है, ई पीला धारी वाला दुर्गा चचा के बेटा है, ई साल आईआईटी में नहीं हुआ, लेकिन डोनेशन वाला में सौथ इंडिया जाने वाला है...
फोटो 19-- भोला चाचा, रिटायर हो गए हैं लेकिन अफसरी रुआब अबइहों ले है, गंभीर आदमी हैं, पीछे तिनकौड़ी साहू, बड़ा बाबू, बुच्चन जी और उनके साढू जो लल्लन जी के मउसेरा भाई भी हैं...
फोटो 20-- शिवगंगा बैंड, माथे पर लैट उठाए औरतें, गुलाब से सजी गाड़ी, गले में गेंदे का हार पहने बराती, तनकर चलते मउसा जी, लाइट में हाइलाइट होता बीबीजे कोचिंग सेंटर का विज्ञापन
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फोटो 22-- अपनी पम्मी कितनी सुंदर दिख रही है, अगर यही फोटो भेज दिया जाए तो तुरंत बियाह ठीक हो जाएगा, लल्लनवा पाकेट में हाथ रखके खड़ा है, लगता है बहुत पइसा है पाकिट में....
फोटो 23-- वही हम कहें, जैमाल वाला फोटो कहाँ गया, ई रहा, लैट कम है, चेहरा पर नहीं हैॉ, ठीक-ठीक है, नेचुरल है, दिख तो रहा है....
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कच्ची और विदाई वाला दूसरा एलबम में है, दुल्हा तो ई एलबम में हइये नई है...
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17 जनवरी, 2010
पॉलिश जैसी स्याह क़िस्मत
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के चौदह नंबर प्लेटफार्म पर सैकड़ों जूतों को स्कैन करता बारह साल का एक लड़का मेरे सामने रुका, "पॉलिश, साहब?"
मेरे चेहरे और जूतों की रंगत को अनुभवी आँखों से एक-एक बार देखने के बाद उसने सवाल पूछा था, उसका अंदाज़ा सही था. मेरे जूतों को पॉलिश की ज़रूरत थी.
जूते की पालिश और शरीर की मालिश कुछ ऐसे काम हैं जो मेरे भीतर असमंजस पैदा करते हैं. हाथरिक्शे की सवारी, घरेलू नौकर की सेवाएँ वग़ैरह मेरे लिए जितनी सुविधा हैं, उतनी ही दुविधा भी.
वैसे सुविधा और दुविधा की इस लड़ाई में, सुविधा हमेशा जीतती रही है.
एक तरफ़ पूंजीवादी-सामंतवादी शोषण, तो दूसरी ओर रोज़गार का अवसर. पॉलिश कराना सामंतवादी तौर-तरीक़ों को चलाए रखना है या पॉलिश न कराना एक ग़रीब मज़दूर का बहिष्कार? मेरे लिए यह बहुत कठिन सवाल है जिसका पक्का जवाब मेरे पास नहीं है.
मैंने उसका नाम नहीं पूछा लेकिन कल्लू, बिल्लू, पप्पू जैसा कुछ रहा होगा. प्रियांश, अरुणाभ, श्रेयस जैसा तो नहीं ही रहा होगा, ऐसे नाम उन बच्चों के होते हैं जिनकी देखभाल करने वाले माँ-बाप होते हैं.
"पॉलिश, साहब?" उसके दोबारा पूछने पर मैंने हामी भर दी. सधे हुए हाथों से उसने दो मिनट में जूतों को चमका दिया. पीठ पर भारी बैग था इसलिए मैंने उससे फीते बाँधने को कहा. पहली बार उसने अनसुना कर दिया, जब मैंने दोबारा कहा तो बुरा-सा मुँह बनाकर फीतों से जूझने लगा.
उसने बहुत जुगत लगाकर फीतों को किसी तरह एक दूसरे में फँसा दिया, ठीक उसी तरह जैसे मेरा पाँच साल का बेटा करता है. वक़्त ने उसे जूते चमकाना सिखा दिया है मगर उसे जूते के फीते बाँधना सिखाने वाले पता नहीं कहाँ हैं.
शायद उसे 'उँगलियों का हुनर' सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला वरना वह जूते घिसने के जगह उसी स्टेशन पर जेब तराश रहा होता, वह स्कूल नहीं जाता यानी किसी नेक एनजीओ के दायरे से भी बाहर है.
जब मैं अपने बेटे को जूते को फीते बाँधना सिखाऊँगा तो उस लड़के का मटमैला चेहरा आँखों के सामने आएगा.
मेरे चेहरे और जूतों की रंगत को अनुभवी आँखों से एक-एक बार देखने के बाद उसने सवाल पूछा था, उसका अंदाज़ा सही था. मेरे जूतों को पॉलिश की ज़रूरत थी.
जूते की पालिश और शरीर की मालिश कुछ ऐसे काम हैं जो मेरे भीतर असमंजस पैदा करते हैं. हाथरिक्शे की सवारी, घरेलू नौकर की सेवाएँ वग़ैरह मेरे लिए जितनी सुविधा हैं, उतनी ही दुविधा भी.
वैसे सुविधा और दुविधा की इस लड़ाई में, सुविधा हमेशा जीतती रही है.
एक तरफ़ पूंजीवादी-सामंतवादी शोषण, तो दूसरी ओर रोज़गार का अवसर. पॉलिश कराना सामंतवादी तौर-तरीक़ों को चलाए रखना है या पॉलिश न कराना एक ग़रीब मज़दूर का बहिष्कार? मेरे लिए यह बहुत कठिन सवाल है जिसका पक्का जवाब मेरे पास नहीं है.
मैंने उसका नाम नहीं पूछा लेकिन कल्लू, बिल्लू, पप्पू जैसा कुछ रहा होगा. प्रियांश, अरुणाभ, श्रेयस जैसा तो नहीं ही रहा होगा, ऐसे नाम उन बच्चों के होते हैं जिनकी देखभाल करने वाले माँ-बाप होते हैं.
"पॉलिश, साहब?" उसके दोबारा पूछने पर मैंने हामी भर दी. सधे हुए हाथों से उसने दो मिनट में जूतों को चमका दिया. पीठ पर भारी बैग था इसलिए मैंने उससे फीते बाँधने को कहा. पहली बार उसने अनसुना कर दिया, जब मैंने दोबारा कहा तो बुरा-सा मुँह बनाकर फीतों से जूझने लगा.
उसने बहुत जुगत लगाकर फीतों को किसी तरह एक दूसरे में फँसा दिया, ठीक उसी तरह जैसे मेरा पाँच साल का बेटा करता है. वक़्त ने उसे जूते चमकाना सिखा दिया है मगर उसे जूते के फीते बाँधना सिखाने वाले पता नहीं कहाँ हैं.
शायद उसे 'उँगलियों का हुनर' सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला वरना वह जूते घिसने के जगह उसी स्टेशन पर जेब तराश रहा होता, वह स्कूल नहीं जाता यानी किसी नेक एनजीओ के दायरे से भी बाहर है.
जब मैं अपने बेटे को जूते को फीते बाँधना सिखाऊँगा तो उस लड़के का मटमैला चेहरा आँखों के सामने आएगा.
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23 जुलाई, 2009
आर्यभट मस्ट बी प्राउड
काल का पहिया 1510 साल में पूरा घूम गया. बिहार में जहाँ तरेगना है, वहाँ तारों को तरेगन कहते हैं. मिसाल- 'अइसा झापड़ मारेंगे कि दिन में तरेगन लउकने लगेगा'.
शून्य देने वाले वाले गणितज्ञ, दार्शनिक और खगोलशास्त्री आर्यभट ने जब तारों की गति को समझने के लिए इस डीह पर वेधशाला बनाई होगी तो लोगों ने तरेगना नाम रख दिया होगा, ऐसा मेरा अनुमान है.
आर्यभटिय और आर्यसिद्धांत की रचना करके 550 ईस्वी में आर्यभट दुनिया से चले गए और तरेगना की क़िस्मत के डूबे हुए तारे को दो दिन के लिेए उगने में पंद्रह सदियाँ लगीं.
कितनी जादुई बात है कि ग्रहण सबसे ज्यादा देर तक वहाँ रहा जहाँ से आर्यभट आसमान को देखते थे, मानो चांद-सूरज चाहते हों कि आर्यभट को पूरा अवसर मिले अध्ययन का.
तरेगना एक, ईस्वी 499
धोती बांधे, कंधे पर गमछा धरे आर्यभट जब कुसुमपुर से पैदल या बैलगाड़ी में बैठकर यहाँ पहुँचे होंगे तो लोगों की चिंता यही रही होगी इस साल पानी ठीक से बरसेगा या नहीं, पेड़ फलों से लदेंगे या नहीं. लोगों ने बीसेक साल के ब्राह्मण से अपना भविष्य जानना चाहा होगा, आर्यभट ने शायद यही कहा होगा, 'मैं ज्योतिषी नहीं, खगोल का अध्येता हूँ.'
गणित के बीजसूत्रों और आसमान फैले हुए तारों के रहस्य ढूँढने के लिए आर्यभट के साथी थे उसकी अपनी वर्णमाला के अक्षर, जिन्हें हम आज x+Y=? के रुप में पहचानते हैं, वे लिखते होंगे, क+ख=?. भोजपत्र, ताम्रपत्र और खड़िए से न जाने क्या-क्या लिखा-मिटाया होगा.
किसी ग्रहण से पहले जब लोग पुराणों के किस्से लेकर विप्रवर के पास पहुँचे होंगे तो आर्यभट ने मिट्टी की गेंदों को गोल घुमाकर समझाया होगा, 'सूरज और धरती के परिभ्रमण पथ के बीच चंद्रमा के आ जाने से उसकी छाया पड़ती है...'
गर्भवती महिलाओं पर इसका क्या असर होगा, क्या तुलसी का पत्ता डाल देने से खाना अशुद्ध होने से बच जाएगा, ग्रहण के बाद क्या-क्या दान करना चाहिए....इस तरह के सवालों का जवाब में आर्यभट ने बड़ी विनम्रता से संभवत यही कहा होगा कि 'यह मेरा विषय नहीं है'.
तरेगना दो, ईस्वी 2009
ओबी वैन, कैमरामैन, पत्रकार, एस्ट्रोनॉट्स, सिक्यूरिटी के साथ मिनिस्टर, फाइल लिए कलेक्टर, टूरिस्ट और चिरंतन सवालों की खदबदाहट मन में लिए जनता. अब सबको सब कुछ पता है. कोई अध्येता नहीं है, हर कोई जानकार है, आख़िर 1500 साल बीत चुके हैं.
भोजपत्र, ताम्रपत्र का ज़माना नहीं है, सेटेलाइट लिंक के ज़रिए लाइव ब्राडकास्ट हो रहा है, मिट्टी की गेंद घुमाकर समझाने की ज़रूरत नहीं है, टीवी चैनलों के पास अल्ट्रा मॉर्डन ग्राफ़िक सॉफ्टवेयर्स हैं.
गर्भवती महिलाओं पर क्या असर होगा, किस राशि के लोगों के लिए ग्रहण कितना अशुभ होगा, किस-किस मंत्र का जाप करना चाहिए ये सब वेदों-पुराणों के हवाले से लाइव बताया जा रहा है.
आर्यभट से कितना आगे निकल आए हैं हम, हमें अब सब पता है.
आर्यभट ने तो सिर्फ़ बीजगणित और खगोल को एक दूसरे से जोड़ा था, हमने वेद, विज्ञान, मिथक, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, अर्थशास्त्र सबको मथनी से घोंट दिया है और बनाया है अपना 'कल्चर' जिसके रहस्यों को आपने समझ ही लिया होगा अपने फ़ेवरिट चैनल की मदद से.
शून्य देने वाले वाले गणितज्ञ, दार्शनिक और खगोलशास्त्री आर्यभट ने जब तारों की गति को समझने के लिए इस डीह पर वेधशाला बनाई होगी तो लोगों ने तरेगना नाम रख दिया होगा, ऐसा मेरा अनुमान है.
आर्यभटिय और आर्यसिद्धांत की रचना करके 550 ईस्वी में आर्यभट दुनिया से चले गए और तरेगना की क़िस्मत के डूबे हुए तारे को दो दिन के लिेए उगने में पंद्रह सदियाँ लगीं.
कितनी जादुई बात है कि ग्रहण सबसे ज्यादा देर तक वहाँ रहा जहाँ से आर्यभट आसमान को देखते थे, मानो चांद-सूरज चाहते हों कि आर्यभट को पूरा अवसर मिले अध्ययन का.
तरेगना एक, ईस्वी 499
धोती बांधे, कंधे पर गमछा धरे आर्यभट जब कुसुमपुर से पैदल या बैलगाड़ी में बैठकर यहाँ पहुँचे होंगे तो लोगों की चिंता यही रही होगी इस साल पानी ठीक से बरसेगा या नहीं, पेड़ फलों से लदेंगे या नहीं. लोगों ने बीसेक साल के ब्राह्मण से अपना भविष्य जानना चाहा होगा, आर्यभट ने शायद यही कहा होगा, 'मैं ज्योतिषी नहीं, खगोल का अध्येता हूँ.'
गणित के बीजसूत्रों और आसमान फैले हुए तारों के रहस्य ढूँढने के लिए आर्यभट के साथी थे उसकी अपनी वर्णमाला के अक्षर, जिन्हें हम आज x+Y=? के रुप में पहचानते हैं, वे लिखते होंगे, क+ख=?. भोजपत्र, ताम्रपत्र और खड़िए से न जाने क्या-क्या लिखा-मिटाया होगा.
किसी ग्रहण से पहले जब लोग पुराणों के किस्से लेकर विप्रवर के पास पहुँचे होंगे तो आर्यभट ने मिट्टी की गेंदों को गोल घुमाकर समझाया होगा, 'सूरज और धरती के परिभ्रमण पथ के बीच चंद्रमा के आ जाने से उसकी छाया पड़ती है...'
गर्भवती महिलाओं पर इसका क्या असर होगा, क्या तुलसी का पत्ता डाल देने से खाना अशुद्ध होने से बच जाएगा, ग्रहण के बाद क्या-क्या दान करना चाहिए....इस तरह के सवालों का जवाब में आर्यभट ने बड़ी विनम्रता से संभवत यही कहा होगा कि 'यह मेरा विषय नहीं है'.
तरेगना दो, ईस्वी 2009
ओबी वैन, कैमरामैन, पत्रकार, एस्ट्रोनॉट्स, सिक्यूरिटी के साथ मिनिस्टर, फाइल लिए कलेक्टर, टूरिस्ट और चिरंतन सवालों की खदबदाहट मन में लिए जनता. अब सबको सब कुछ पता है. कोई अध्येता नहीं है, हर कोई जानकार है, आख़िर 1500 साल बीत चुके हैं.
भोजपत्र, ताम्रपत्र का ज़माना नहीं है, सेटेलाइट लिंक के ज़रिए लाइव ब्राडकास्ट हो रहा है, मिट्टी की गेंद घुमाकर समझाने की ज़रूरत नहीं है, टीवी चैनलों के पास अल्ट्रा मॉर्डन ग्राफ़िक सॉफ्टवेयर्स हैं.
गर्भवती महिलाओं पर क्या असर होगा, किस राशि के लोगों के लिए ग्रहण कितना अशुभ होगा, किस-किस मंत्र का जाप करना चाहिए ये सब वेदों-पुराणों के हवाले से लाइव बताया जा रहा है.
आर्यभट से कितना आगे निकल आए हैं हम, हमें अब सब पता है.
आर्यभट ने तो सिर्फ़ बीजगणित और खगोल को एक दूसरे से जोड़ा था, हमने वेद, विज्ञान, मिथक, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, अर्थशास्त्र सबको मथनी से घोंट दिया है और बनाया है अपना 'कल्चर' जिसके रहस्यों को आपने समझ ही लिया होगा अपने फ़ेवरिट चैनल की मदद से.
02 फ़रवरी, 2009
माँ सारदेSS कहाँ तू बीना बजा रही हैSS
हम बच्चों की पुकार माँ सारदे क्यों सुनतीं, लक्ष्मी ने हमारी प्रार्थना को पहले ही अनसुना जो कर दिया था. बाल विकास इस्कूल के बच्चे रोज़ाना माँ सारदे से पूछते थे कि वो कहाँ बीना बजा रही हैं. नीली कमीज़, खाकी हाफ़पैंट और बहती नाक बाले बच्चों को दून स्कूल, वेलहैम, शेरवुड और स्प्रिंगफ़ील्ड का पता ही नहीं था, जहाँ वे वीणा बजाती हैं.
माँ सारदे बीना बजाने में व्यस्त रहीं, उनकी कृपा जिन लोगों पर हुई उन्होंने प्राइमरी स्कूल में फ्रेंच, सितार, स्विमिंग और घुड़सवारी भी सीखी. हम ककहरा, तीन तिया नौ, भारत की राजधानी नई दिल्ली है...पढ़कर समझने लगे कि माँ सारदे की हम पर भी कृपा है. हमने सरसती पूजा को सबसे बड़ी पूजा समझा.
जाड़े की गुनगुनी धूप में चौथी से लेकर दसवीं क्लास तक हर साल गन्ना चूसते हुए या छीमियाँ खाते हुए प्लान बनाते--'इस बार सरसती पूजा जमके करना है.' तभी शंकालु आवाज़ आती, 'अबे, चंदा उठाना शुरू करो', कोई कहता, 'अभी से माँगोगे तो भगा देंगे लोग', दूसरा कहता, 'कोई बार-बार थोड़े न देगा, पहले ले लो तो अच्छा रहेगा...'
'सरस्वती पूजा समिति' नाम की खाकी ज़िल्द वाली हरी-नारंगी रसीद-बुक लेकर हमारी टोली निकल पड़ती चंदा उगाहने. हम इक्यावन, इक्कीस, ग्यारह से चलकर दो रुपए पर आ जाते थे. कई दुकानदार चवन्नी निकालते और उसकी भी रसीद माँगते थे. जंगीलाल चौधरी कोयले वाले ने जो बात सन सत्तर के दशक के अंत में कही थी उसका मर्म अब समझ में आता है--'अभी तो ले रहे हो, जब देना पड़ेगा न, तब फटेगा बेटा...'
गहरी चिंताओं और आशंकाओं का दौर होता, मूर्ति के लिए पैसे पूरे पड़ेंगे या नहीं, घर से माँगने के सहमे-सहमे से मंसूबे बनते, रात को नींद में बड़बड़ाते-- 'पाँच रुपए से कम चंदा नहीं लेंगे...'. कुम्हार टोली के चक्कर लगते, अफ़वाहें उड़तीं कि इस बार रामपाल सिर्फ़ बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बना रहा है हज़ार रुपए वाली, दो सौ वाली नहीं...दिल धक से रह जाता, कोई मनहूस सुझाव देता, 'अरे, पूजे न करना है, कलेंडर लगा देंगे.'
कलेंडर वाली नौबत कभी नहीं आई, कुछ न कुछ जुगाड़ हो ही गया, सरसती माता ने पार लगा दिया. रिक्शे पर बिठाकर, मुँह ढँककर, 'बोलो-बोलो सरसती माता की जय'...कहते हुए किसी दोस्त के बरामदे पर उनकी सवारी उतर जाती. टोकरियाँ उल्टी रखकर उनके ऊपर बोरियाँ बिछाकर सिल्वर पेंट करके पहाड़ बन जाते, चाचियों-मौसियों-बुआओं की साड़ियों से कुछ न कुछ सजावट हो जाती.
शू स्ट्रिंग बजट, टीम वर्क, मोटिवेशन, प्लानिंग, क्रिएटिव थिंकिंग...जैसे जितने मैनेजमेंट के मुहावरे हैं उनका सबका व्यावहारिक रूप था दस साल के लड़कों की सरसती पूजा. आटे को उबालकर बनाई गई लेई से सुतली के ऊपर कैंची से काटर चिपकाए गए रंगीन तिकोने झंडों के बीच रखी हंसवाहिनी-वीणावादिनी की छोटी-सी मूर्ति. कैसी अनुपम उपलब्धि, हमारी पूजा, हमारी मूर्ति...ठीक वैसी ही अनुभूति, जिसे आजकल कहा जाता है--'यस वी डिड इट'.
पूरे एक साल में एक बार मौक़ा मिलता था मिलजुल कर कुछ करने का, धर्म के नाम पर. क्रिकेट टीम बनाने और सरसती पूजा-दुर्गा पूजा-रामलीला करने को छोड़कर कोई ऐसा काम दिखाई नहीं देता जो निम्न मध्यवर्गीय सवर्ण उत्तर भारतीय हिंदू किशोर के लिए उपलब्ध हो जिसमें सामूहिकता और सामुदायिकता का आभास हो.
आटे के चूरन में लिपटे गोल-गोल कटे गाजर, एक अमरूद के आठ फाँक और इलायची दाना की परसादी. घर में बहुत कहा-सुनी के बाद दोस्तों के साथ पुजास्थल पर देर रात तक रहने की अनुमति. रात को भूतों की कहानियाँ और माता सरसती की किरपा से परिच्छा में अच्छे नंबर लाने के सपने. कैसे जादू भरे दिन और रातें...अचानक कोई कहता, 'अरे भसान (विसर्जन) के लिए रेकसा भाड़ा कहाँ से आएगा?'
रिक्शा भाड़ा भी आ जाता, जैसे मूर्ति आई थी, सरसती मइया किरपा से सब हो जाता था. रिक्शे पर माँ शारदा को लेकर गंदले तालाब की ओर चलते बच्चों की टोली सबसे आगे होती क्योंकि जल्दी घर लौटने का दबाव होता. माता सरसती की कृपा से पूरी तरह वंचित बड़े भाइयों की अबीर उड़ाती टोली, बैंजो-ताशा की सरगम पर थिरकती मंडली, माता सरस्वती की कृपा से दो दिन के आनंद का रसपान करते कॉलेज-विमुख छात्रों का दल 'जब छाए मेरा जादू कोई बच न पाए' और 'हरि ओम हरि' की धुन पर पूरे शहर के चक्कर लगाता.
अगले दिन सब कुछ बड़ा सूना-सूना लगता.
माँ सारदे बीना बजाने में व्यस्त रहीं, उनकी कृपा जिन लोगों पर हुई उन्होंने प्राइमरी स्कूल में फ्रेंच, सितार, स्विमिंग और घुड़सवारी भी सीखी. हम ककहरा, तीन तिया नौ, भारत की राजधानी नई दिल्ली है...पढ़कर समझने लगे कि माँ सारदे की हम पर भी कृपा है. हमने सरसती पूजा को सबसे बड़ी पूजा समझा.
जाड़े की गुनगुनी धूप में चौथी से लेकर दसवीं क्लास तक हर साल गन्ना चूसते हुए या छीमियाँ खाते हुए प्लान बनाते--'इस बार सरसती पूजा जमके करना है.' तभी शंकालु आवाज़ आती, 'अबे, चंदा उठाना शुरू करो', कोई कहता, 'अभी से माँगोगे तो भगा देंगे लोग', दूसरा कहता, 'कोई बार-बार थोड़े न देगा, पहले ले लो तो अच्छा रहेगा...'
'सरस्वती पूजा समिति' नाम की खाकी ज़िल्द वाली हरी-नारंगी रसीद-बुक लेकर हमारी टोली निकल पड़ती चंदा उगाहने. हम इक्यावन, इक्कीस, ग्यारह से चलकर दो रुपए पर आ जाते थे. कई दुकानदार चवन्नी निकालते और उसकी भी रसीद माँगते थे. जंगीलाल चौधरी कोयले वाले ने जो बात सन सत्तर के दशक के अंत में कही थी उसका मर्म अब समझ में आता है--'अभी तो ले रहे हो, जब देना पड़ेगा न, तब फटेगा बेटा...'
गहरी चिंताओं और आशंकाओं का दौर होता, मूर्ति के लिए पैसे पूरे पड़ेंगे या नहीं, घर से माँगने के सहमे-सहमे से मंसूबे बनते, रात को नींद में बड़बड़ाते-- 'पाँच रुपए से कम चंदा नहीं लेंगे...'. कुम्हार टोली के चक्कर लगते, अफ़वाहें उड़तीं कि इस बार रामपाल सिर्फ़ बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बना रहा है हज़ार रुपए वाली, दो सौ वाली नहीं...दिल धक से रह जाता, कोई मनहूस सुझाव देता, 'अरे, पूजे न करना है, कलेंडर लगा देंगे.'
कलेंडर वाली नौबत कभी नहीं आई, कुछ न कुछ जुगाड़ हो ही गया, सरसती माता ने पार लगा दिया. रिक्शे पर बिठाकर, मुँह ढँककर, 'बोलो-बोलो सरसती माता की जय'...कहते हुए किसी दोस्त के बरामदे पर उनकी सवारी उतर जाती. टोकरियाँ उल्टी रखकर उनके ऊपर बोरियाँ बिछाकर सिल्वर पेंट करके पहाड़ बन जाते, चाचियों-मौसियों-बुआओं की साड़ियों से कुछ न कुछ सजावट हो जाती.
शू स्ट्रिंग बजट, टीम वर्क, मोटिवेशन, प्लानिंग, क्रिएटिव थिंकिंग...जैसे जितने मैनेजमेंट के मुहावरे हैं उनका सबका व्यावहारिक रूप था दस साल के लड़कों की सरसती पूजा. आटे को उबालकर बनाई गई लेई से सुतली के ऊपर कैंची से काटर चिपकाए गए रंगीन तिकोने झंडों के बीच रखी हंसवाहिनी-वीणावादिनी की छोटी-सी मूर्ति. कैसी अनुपम उपलब्धि, हमारी पूजा, हमारी मूर्ति...ठीक वैसी ही अनुभूति, जिसे आजकल कहा जाता है--'यस वी डिड इट'.
पूरे एक साल में एक बार मौक़ा मिलता था मिलजुल कर कुछ करने का, धर्म के नाम पर. क्रिकेट टीम बनाने और सरसती पूजा-दुर्गा पूजा-रामलीला करने को छोड़कर कोई ऐसा काम दिखाई नहीं देता जो निम्न मध्यवर्गीय सवर्ण उत्तर भारतीय हिंदू किशोर के लिए उपलब्ध हो जिसमें सामूहिकता और सामुदायिकता का आभास हो.
आटे के चूरन में लिपटे गोल-गोल कटे गाजर, एक अमरूद के आठ फाँक और इलायची दाना की परसादी. घर में बहुत कहा-सुनी के बाद दोस्तों के साथ पुजास्थल पर देर रात तक रहने की अनुमति. रात को भूतों की कहानियाँ और माता सरसती की किरपा से परिच्छा में अच्छे नंबर लाने के सपने. कैसे जादू भरे दिन और रातें...अचानक कोई कहता, 'अरे भसान (विसर्जन) के लिए रेकसा भाड़ा कहाँ से आएगा?'
रिक्शा भाड़ा भी आ जाता, जैसे मूर्ति आई थी, सरसती मइया किरपा से सब हो जाता था. रिक्शे पर माँ शारदा को लेकर गंदले तालाब की ओर चलते बच्चों की टोली सबसे आगे होती क्योंकि जल्दी घर लौटने का दबाव होता. माता सरसती की कृपा से पूरी तरह वंचित बड़े भाइयों की अबीर उड़ाती टोली, बैंजो-ताशा की सरगम पर थिरकती मंडली, माता सरस्वती की कृपा से दो दिन के आनंद का रसपान करते कॉलेज-विमुख छात्रों का दल 'जब छाए मेरा जादू कोई बच न पाए' और 'हरि ओम हरि' की धुन पर पूरे शहर के चक्कर लगाता.
अगले दिन सब कुछ बड़ा सूना-सूना लगता.
12 जनवरी, 2009
आमिर-उल-बॉलीवुड
समाज, संस्कृति, सरोकार, समझदारी...जैसे जितने शब्द हैं उनका विलोम है हमारा समायिक हिंदी सिनेमा. भडैंती, भेड़चाल और भौंडापन, तीन भकार हैं जो बॉलीवुड पर राज करते हैं.
डेढ़ महीने के अंतराल पर, अपनी पेशेवर-पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बावजूद बड़ी मुश्किल से कुछ लिखने बैठा हूँ (सुना है, अमिताभ बच्चन रोज़ लिखते हैं). दो साल से ब्लॉग लिख रहा हूँ लेकिन सिनेमा के बारे में कुछ नहीं लिखा, अगर लिखता भी तो शायद 'बॉलीवुड' के बारे में नहीं, जिसे मैं समझदार नागरिकों की बुद्धिमत्ता के घोर अपमान के तौर पर देखता हूँ, चंद अपवादों को छोड़कर.
'मंदबुद्धि बॉलीवुड' के चक्कर में अपनी नींद ख़राब न करने वाला आदमी रात के बारह बजे ब्लॉग इसलिए लिख रहा है क्योंकि उसने थोड़ी देर पहले गज़नी देखी है. ग़जनी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं है जिस पर रात की नींद हराम की जाए, हॉलीवुड इश्टाइल में बनाई गई हर बॉलीवुड फ़िल्म की तरह सारे झोल-झाल (हर पंद्रह मिनट पर याद्दाश्त भूलने की कोई बीमारी नहीं होती) ग़जनी में भी हैं, लेकिन आमिर ख़ान के बारे में कुछ कहने को 'दिल चाहता है'...
फ़िल्म का संजय सिंघानिया अपना आमिर है जिसके अभिनय में कोई खोट निकालने की गुंजाइश नहीं दिखती, लेकिन फ़िल्म तो मुरुगादॉस की है जिसकी समीक्षा करना मेरा मक़सद नहीं है. वैसे भी असली फ़िल्म तो ओलिवएरा की 'मोमेंटो' है जो 2002 में रिलीज़ हुई थी.
बहरहाल, जब हम इंटर से निकले ही थे, इश्क़ फ़रमाने को बेताब थे, तभी आमिर ख़ान कयामत बरपा गए. जवान तो हम पाँच साल पहले सनी देयोल की 'बेताब' देखकर हो गए थे लेकिन क्यूएसक्यूटी (दिल्ली-बॉम्बे वालों का दिया नाम, जिसकी ख़बर हमें छह साल बाद अपने कस्बे से दिल्ली आकर मिली) का सुरूर ही कुछ और था.
आमिर ने एंट्री ही ऐसी की थी कि मेरे जैसे बहुत सारे लोगों को लगा कि उसके पापा ठीक कहते हैं, वह बड़ा नाम करने वाला है. उसने सदाबहार बुढ़ापे में सफ़ेद पतलून-सफ़ेद जूते पहनकर पल-पल में साड़ियाँ बदलतीं जयाप्रदा के साथ नाचते जितेंद्र की 'हिम्मतवाला' टाइप फ़िल्में बनाने वाले सारे 'मद्रासी' प्रोड्यूसरों हिम्मत तोड़ दी थी.
ठिगना-चिकना चॉकलेटी जवान मुझे पहली फ़िल्म में पसंद आया था लेकिन आगे चलकर मेरी नज़र में वह तीन ख़ानों की लिस्ट में शामिल हो गया था, उसकी फ़िल्में आती रहीं कुछ देखीं, कई छूट गईं, जितनी देखीं उनमें लाख खामियाँ रही हों, अभियन कहीं उन्नीस नहीं था.
बॉलीवुड के मुझ जैसे कटु आलोचक को कहना पड़ेगा कि आमिर ख़ान की ख़ूबियों को भी इंडस्ट्री के सीमित संदर्भ में ही देखा जाए लेकिन उनका कायल न होना कठिन काम है. बॉलीवुड की बेवकूफ़ियों की वजह से पूर तरह उचाट हो चुका मेरा मन अपनी जगह था लेकिन उम्मीद कहीं बाक़ी रही कि कभी अपना सिनेमा भी चर्चा के लायक़ बन सकेगा.
जिसे अँगरेज़ी में आउटग्रो करना कहते हैं, मैं बाइस साल का होते-होते बॉलीवुड की नौटंकी से बाहर सिनेमा ढूँढने लगा. आमिर को मेरे आउटग्रोइंग माइंड ने दोबारा नोटिस किया 'अर्थ 1947' में. इस फ़िल्म में मैंने नोटिस किया कि मैं ही नहीं, अपने दायरे में घिरे आमिर भी बॉलीवुड को आउटग्रो कर रहे हैं. इसके बाद मैंने देखा कि आमिर ने किसी ऐसी फ़िल्म में काम नहीं किया जिसे बॉलीवुड के व्यापक बेहूदगी के विशाल दायरे में डालकर नोटिस लेने से इनकार कर दिया जाए.
'लगान' को छोड़कर ज्यादातर फ़िल्में ऐसी नहीं जिनकी भारत से बाहर कोई चर्चा हुई हो, लेकिन बॉलीवुड के हिसाब से 'दिल चाहता है' और 'मंगल पांडे' काफ़ी ऑरिजनल सिनेमा है. 'तारे ज़मीं पर' भारतीय सिनेमा के इतिहास की इक्का-दुक्का फ़िल्मों में है जो नए विषय को एक्सप्लोर करने के अलावा, एक मिनट के लिए भी व्यावसायिकता के दबाव में नहीं दिखती...अति-भावुकता भारतीय सिनेमा नहीं, भारतीय समाज की समस्या है, उसका क्या करें?
बॉलीवुड में कोई ऐसा व्यक्तित्व (सिर्फ़ अभिनेता नहीं, डायरेक्टर-प्रोड्यूसर भी) नहीं दिखता जिसकी तुलना आमिर ख़ान से की जाए. इसकी एक सबसे सादा वजह है कि बॉलीवुड जैसे भीड़ भरे बाज़ार में कोई अदाकार साल में सिर्फ़ एक बार दुकान लगाता हो, यही बड़ी बात है. 'हटके', 'औरों से अलग', एकदम 'यूनिक', 'टोटली न्यू'...जैसे मुहावरों को बेमानी बना चुके बॉलीवुड में आमिर का करियर ही इन मुहावरों पर टिका रहा है.
पाँच-छह साल से (गज़नी सहित) हर फ़िल्म में आमिर ने इसलिए काम किया है कि वो सिर्फ़ बेहतरीन फ़िल्मों से जुड़ना चाहते हैं, वह बेहतरीन कितनी बेहतरीन है, यह बहस की बात हो सकती है, लेकिन आमिर की बेहतर से बेहतरीन की तरफ़ बढ़ने की अदम्य इच्छा पर कोई बहस नहीं की जा सकती, आमिर आदर के पात्र दिखते हैं क्योंकि व्यवासायिकता का लेशमात्र उनके काम पर हावी नहीं दिखता.
मुझे नहीं पता कि लोग अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान को किसलिए याद करेंगे, लेकिन ये पता है कि आमिर ख़ान को बाज़ार के दबाव से परे जाकर कलात्मक संतुष्टि खोजने वाली एक अहम शख्सियत के रूप में याद किया जाएगा जिसने हर बार बॉलीवुड के तय मानकों से आगे जाकर कुछ करने की कोशिश की. वह कभी नंबर वन के ठप्पे के लिए बेताब नहीं हुआ, उसने कभी आने वाली सात पीढ़ियों के दौलत बटोरने की आपाधापी में हिस्सा नहीं लिया.
आमिर सचमुच बॉलीवुड के लिए साल दर साल मिसालें क़ायम कर रहे हैं. वे जिस फ़िल्म से जुड़े हों (बतौर अभिनेता, निर्देशक या निर्माता) उससे लोगों को ये उम्मीद ज़रूर होती है कि फ़िल्म में कुछ तो होगा देखने लायक़. आमिर बॉलीवुड में अकेले हैं जो किसी खाँचे में फिट नहीं होते, भेड़चाल वालों के लिए खाँचे तैयार करने के काम में लगे रहते हैं.
सही मायनों में लीडर हैं आमिर, आमिर का मतलब वैसे लीडर ही होता है.
डेढ़ महीने के अंतराल पर, अपनी पेशेवर-पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बावजूद बड़ी मुश्किल से कुछ लिखने बैठा हूँ (सुना है, अमिताभ बच्चन रोज़ लिखते हैं). दो साल से ब्लॉग लिख रहा हूँ लेकिन सिनेमा के बारे में कुछ नहीं लिखा, अगर लिखता भी तो शायद 'बॉलीवुड' के बारे में नहीं, जिसे मैं समझदार नागरिकों की बुद्धिमत्ता के घोर अपमान के तौर पर देखता हूँ, चंद अपवादों को छोड़कर.
'मंदबुद्धि बॉलीवुड' के चक्कर में अपनी नींद ख़राब न करने वाला आदमी रात के बारह बजे ब्लॉग इसलिए लिख रहा है क्योंकि उसने थोड़ी देर पहले गज़नी देखी है. ग़जनी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं है जिस पर रात की नींद हराम की जाए, हॉलीवुड इश्टाइल में बनाई गई हर बॉलीवुड फ़िल्म की तरह सारे झोल-झाल (हर पंद्रह मिनट पर याद्दाश्त भूलने की कोई बीमारी नहीं होती) ग़जनी में भी हैं, लेकिन आमिर ख़ान के बारे में कुछ कहने को 'दिल चाहता है'...
फ़िल्म का संजय सिंघानिया अपना आमिर है जिसके अभिनय में कोई खोट निकालने की गुंजाइश नहीं दिखती, लेकिन फ़िल्म तो मुरुगादॉस की है जिसकी समीक्षा करना मेरा मक़सद नहीं है. वैसे भी असली फ़िल्म तो ओलिवएरा की 'मोमेंटो' है जो 2002 में रिलीज़ हुई थी.
बहरहाल, जब हम इंटर से निकले ही थे, इश्क़ फ़रमाने को बेताब थे, तभी आमिर ख़ान कयामत बरपा गए. जवान तो हम पाँच साल पहले सनी देयोल की 'बेताब' देखकर हो गए थे लेकिन क्यूएसक्यूटी (दिल्ली-बॉम्बे वालों का दिया नाम, जिसकी ख़बर हमें छह साल बाद अपने कस्बे से दिल्ली आकर मिली) का सुरूर ही कुछ और था.
आमिर ने एंट्री ही ऐसी की थी कि मेरे जैसे बहुत सारे लोगों को लगा कि उसके पापा ठीक कहते हैं, वह बड़ा नाम करने वाला है. उसने सदाबहार बुढ़ापे में सफ़ेद पतलून-सफ़ेद जूते पहनकर पल-पल में साड़ियाँ बदलतीं जयाप्रदा के साथ नाचते जितेंद्र की 'हिम्मतवाला' टाइप फ़िल्में बनाने वाले सारे 'मद्रासी' प्रोड्यूसरों हिम्मत तोड़ दी थी.
ठिगना-चिकना चॉकलेटी जवान मुझे पहली फ़िल्म में पसंद आया था लेकिन आगे चलकर मेरी नज़र में वह तीन ख़ानों की लिस्ट में शामिल हो गया था, उसकी फ़िल्में आती रहीं कुछ देखीं, कई छूट गईं, जितनी देखीं उनमें लाख खामियाँ रही हों, अभियन कहीं उन्नीस नहीं था.
बॉलीवुड के मुझ जैसे कटु आलोचक को कहना पड़ेगा कि आमिर ख़ान की ख़ूबियों को भी इंडस्ट्री के सीमित संदर्भ में ही देखा जाए लेकिन उनका कायल न होना कठिन काम है. बॉलीवुड की बेवकूफ़ियों की वजह से पूर तरह उचाट हो चुका मेरा मन अपनी जगह था लेकिन उम्मीद कहीं बाक़ी रही कि कभी अपना सिनेमा भी चर्चा के लायक़ बन सकेगा.
जिसे अँगरेज़ी में आउटग्रो करना कहते हैं, मैं बाइस साल का होते-होते बॉलीवुड की नौटंकी से बाहर सिनेमा ढूँढने लगा. आमिर को मेरे आउटग्रोइंग माइंड ने दोबारा नोटिस किया 'अर्थ 1947' में. इस फ़िल्म में मैंने नोटिस किया कि मैं ही नहीं, अपने दायरे में घिरे आमिर भी बॉलीवुड को आउटग्रो कर रहे हैं. इसके बाद मैंने देखा कि आमिर ने किसी ऐसी फ़िल्म में काम नहीं किया जिसे बॉलीवुड के व्यापक बेहूदगी के विशाल दायरे में डालकर नोटिस लेने से इनकार कर दिया जाए.
'लगान' को छोड़कर ज्यादातर फ़िल्में ऐसी नहीं जिनकी भारत से बाहर कोई चर्चा हुई हो, लेकिन बॉलीवुड के हिसाब से 'दिल चाहता है' और 'मंगल पांडे' काफ़ी ऑरिजनल सिनेमा है. 'तारे ज़मीं पर' भारतीय सिनेमा के इतिहास की इक्का-दुक्का फ़िल्मों में है जो नए विषय को एक्सप्लोर करने के अलावा, एक मिनट के लिए भी व्यावसायिकता के दबाव में नहीं दिखती...अति-भावुकता भारतीय सिनेमा नहीं, भारतीय समाज की समस्या है, उसका क्या करें?
बॉलीवुड में कोई ऐसा व्यक्तित्व (सिर्फ़ अभिनेता नहीं, डायरेक्टर-प्रोड्यूसर भी) नहीं दिखता जिसकी तुलना आमिर ख़ान से की जाए. इसकी एक सबसे सादा वजह है कि बॉलीवुड जैसे भीड़ भरे बाज़ार में कोई अदाकार साल में सिर्फ़ एक बार दुकान लगाता हो, यही बड़ी बात है. 'हटके', 'औरों से अलग', एकदम 'यूनिक', 'टोटली न्यू'...जैसे मुहावरों को बेमानी बना चुके बॉलीवुड में आमिर का करियर ही इन मुहावरों पर टिका रहा है.
पाँच-छह साल से (गज़नी सहित) हर फ़िल्म में आमिर ने इसलिए काम किया है कि वो सिर्फ़ बेहतरीन फ़िल्मों से जुड़ना चाहते हैं, वह बेहतरीन कितनी बेहतरीन है, यह बहस की बात हो सकती है, लेकिन आमिर की बेहतर से बेहतरीन की तरफ़ बढ़ने की अदम्य इच्छा पर कोई बहस नहीं की जा सकती, आमिर आदर के पात्र दिखते हैं क्योंकि व्यवासायिकता का लेशमात्र उनके काम पर हावी नहीं दिखता.
मुझे नहीं पता कि लोग अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान को किसलिए याद करेंगे, लेकिन ये पता है कि आमिर ख़ान को बाज़ार के दबाव से परे जाकर कलात्मक संतुष्टि खोजने वाली एक अहम शख्सियत के रूप में याद किया जाएगा जिसने हर बार बॉलीवुड के तय मानकों से आगे जाकर कुछ करने की कोशिश की. वह कभी नंबर वन के ठप्पे के लिए बेताब नहीं हुआ, उसने कभी आने वाली सात पीढ़ियों के दौलत बटोरने की आपाधापी में हिस्सा नहीं लिया.
आमिर सचमुच बॉलीवुड के लिए साल दर साल मिसालें क़ायम कर रहे हैं. वे जिस फ़िल्म से जुड़े हों (बतौर अभिनेता, निर्देशक या निर्माता) उससे लोगों को ये उम्मीद ज़रूर होती है कि फ़िल्म में कुछ तो होगा देखने लायक़. आमिर बॉलीवुड में अकेले हैं जो किसी खाँचे में फिट नहीं होते, भेड़चाल वालों के लिए खाँचे तैयार करने के काम में लगे रहते हैं.
सही मायनों में लीडर हैं आमिर, आमिर का मतलब वैसे लीडर ही होता है.
16 नवंबर, 2008
सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला...
समझदार होना सहज है और कठिन भी, जैसी फ़ितरत वैसी समझदारी. मैं समझता हूँ कि समझदार हूँ, आप भी होंगे, किसी से ज्यादा, किसी से कम. समझदारी इसी में है कि नासमझी को भी समझा जाए.
'समझ समझ के जो न समझे वही नासमझ है...' को फ़िल्मी मानकर मामूली न समझिए. अपनी नासमझी को भी समझिए, उसी प्यार से, जैसे समझदार अपनी समझदारी को सहलाते हैं.
समझ इत्ती सी क्यों होती है कि उसमें फ़ायदे के अलावा किसी चीज़ की जगह नहीं, यह भेद कोई समझदार क्यों नहीं समझा पाता, यह बात मुझ नासमझ की समझ से परे नहीं है.
दुनिया को समझने में नाकाम रहने पर ख़ुदकुशी कर लेने वाले गोरख पांडे जो समझा गए हैं वह चकित करता है कि इतना समझते थे तो फिर जान क्यों दी? शायद इसलिए कि समझ लेना और समझदारी पर अमल करना कई बार बिल्कुल विपरीतार्थक हो सकता है, नहीं समझे?
दो साल में पहला मौक़ा है जब मैं किसी और के लिखे शब्द अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ, ब्लॉग शुरू ही किया था ख़ुद लिखने के लिए, ख़ुद को छापने के लिए मगर समझ, समझदारी, समझाने वाले, समझ का फेर, समझ के झगड़े, नासमझी... के बारे में बहुत सारी बातें लिखीं और मिटाईं, बहुत जूझने के बाद समझ में आया कि लिखने की ज़रूरत थी ही नहीं, यह काम बरसों पहले गोरख पांडे कर गए हैं.
समझदारों का गीत
-------------------------
कविः गोरख पांडे
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
पोस्ट का शीर्षक निदा फ़ाज़ली की अनुमति के बिना उधार लिया गया है, उनसे समझदारी की उम्मीद के साथ.
'समझ समझ के जो न समझे वही नासमझ है...' को फ़िल्मी मानकर मामूली न समझिए. अपनी नासमझी को भी समझिए, उसी प्यार से, जैसे समझदार अपनी समझदारी को सहलाते हैं.
समझ इत्ती सी क्यों होती है कि उसमें फ़ायदे के अलावा किसी चीज़ की जगह नहीं, यह भेद कोई समझदार क्यों नहीं समझा पाता, यह बात मुझ नासमझ की समझ से परे नहीं है.
दुनिया को समझने में नाकाम रहने पर ख़ुदकुशी कर लेने वाले गोरख पांडे जो समझा गए हैं वह चकित करता है कि इतना समझते थे तो फिर जान क्यों दी? शायद इसलिए कि समझ लेना और समझदारी पर अमल करना कई बार बिल्कुल विपरीतार्थक हो सकता है, नहीं समझे?
दो साल में पहला मौक़ा है जब मैं किसी और के लिखे शब्द अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ, ब्लॉग शुरू ही किया था ख़ुद लिखने के लिए, ख़ुद को छापने के लिए मगर समझ, समझदारी, समझाने वाले, समझ का फेर, समझ के झगड़े, नासमझी... के बारे में बहुत सारी बातें लिखीं और मिटाईं, बहुत जूझने के बाद समझ में आया कि लिखने की ज़रूरत थी ही नहीं, यह काम बरसों पहले गोरख पांडे कर गए हैं.
समझदारों का गीत
-------------------------
कविः गोरख पांडे
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
पोस्ट का शीर्षक निदा फ़ाज़ली की अनुमति के बिना उधार लिया गया है, उनसे समझदारी की उम्मीद के साथ.
10 नवंबर, 2008
दिल्ली में रात-दिन की ऑडियो डायरी
चौकीदार की लाठी की ठक-ठक और सीटी की गूँज. बेमतलब की वफ़ादारी निभाते आवारा कुत्तों का कोरस. चर्र चूँ...ऊपर की मंज़िल पर खुला या बंद हुआ दरवाज़ा. बहुत रात हो गई अब सो जाना चाहिए.
गाड़ी रुकी है मेन गेट पर, कोई कॉल सेंटर वाला आ या जा रहा होगा. पीएसपीओ वाला पंखा घूमता है किर्र-किर्र की आवाज़ के साथ, टॉयलेट में पानी टपकता है...टिप टुप, टिप टुप...फेंगशुई वाले कहते हैं कि पानी टपकना शुभ नहीं होता.
'यार कमाल हो गया, पांडे भी साला ग़ज़ब आदमी है...' रात के डेढ़ बजे भी पांडे जी की चिंता, पता नहीं किसे सता रही है. बोलने वाला चल रहा था इसलिए आवाज़ भी चली गई. 'चटाक', लगता है गुडनाइट ठीक से काम नहीं कर रहा है.
उफ़, अक्तूबर में इतनी गर्मी, क्लाइमेट चेंज नहीं तो और क्या है. गरदन पर चमड़ी की सिलवटों में जमा होता पसीना. जेनरेटर की भट-भट-भड़-भड़ के तीस सेंकेड बाद पंखे की किर्र-किर्र सुहाने लगी. पावरबैकअप कितना ज़रूरी है.
'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन'...किस चैनल पर आ रहा होगा ये गाना इस वक़्त, कोई कैसेट घूम रहा होगा या रेडियो बज रहा है. ये गाना कौन, कहाँ, कैसे और क्यों बजा रहा होगा. सोना चाहिए, वर्ना बीता हुआ दिन कोई नहीं लौटाएगा और आने वाला दिन ख़राब हो जाएगा.
सुबह
शूँशूँशूँशूँशूँशूँ...बगल वाले फ्लैट का कुकर बोला. शर्मा जी के यहाँ शायद या फिर जसबीर सिंह के घर, हद् है, रात को खाना पकाकर फ्रिज में नहीं रख सकते? कुछ और सो लूँ नहीं तो दिन भर ऊँघता रहूँगा. यही तो सोने का टाइम है और लोग हैं कि...
'मम्मी, मिन्नी मेरी बुक नहीं दे रही है,' 'चलो-चलो, बस मिस करनी है क्या', 'मैम को बता देना'...'ओह हो, मम्मी आप भी हद करते हो'... हमारे स्कूल जाने या न जाने पर कभी इतना हंगामा नहीं हुआ.
'मंगल भवन अमंगल हारीईईईई'... पता नहीं, लाउडस्पीकर बजाने पर लगी क़ानूनी रोक रात से लेकर सुबह कितने बजे तक है. नाइट ड्यूटी करने वाले तो सिर्फ़ इस बाजे की वजह से नास्तिक हो जाएँगे. ख़ैर, अपार्टमेंट से दूर है मंदिर, लेकिन इतना ज़ोर से बजाने की क्या ज़रूरत है.
'ढम्म'. लगता है, अख़बार की लैंडिंग हुई है बालकनी में. थोड़ी देर में देखता हूँ, ज़रा एक और झपकी मार लूँ. ऐसा क्या होगा अख़बारों में, रात को टीवी की ख़बरें और वेबसाइट देखकर सोया हूँ.
'टिंग टू'...'अरे, दूध का बर्तन धुला नहीं है क्या, दूधवाला आया होगा.' 'ढांग, ठन्न, टनननन...' 'भइया, आपको बोला था न कि मंडे से एक्स्ट्रा चाहिए...' 'ठीक है कल से ले आएँगे...' मदर डेयरी है, अमूल ताज़ा है, नानक डेयरी है, सुबह-सुबह तंग करने वालों से दूध लेना पता नहीं क्यों जरूरी है.
'घर्र,घर्र,घर्र,तड़,तड़,तड़,घर्र,घर्र,घर्र..घूँsss...', स्कूटर को तिरछा करके स्टार्ट करने वाले भी हैं इस अपार्टमेंट में, चारों तरफ़ तो सिर्फ़ कारें नज़र आती हैं, शायद ट्रैफ़िक जाम से बचने के लिए. मैं तो फसूँगा ही जाम में ख़ैर...
'डिंग,डां डिंग डू, डैंग डैंग,' मेरा अपना ही अलार्म है अब तो. साढ़े आठ बज गए, उठना ही पड़ेगा. अलार्म सुनकर किसी और की नींद खुलने के आसार नहीं हैं, सब पहले से उठे हुए हैं.
ये आवाज़ें बहुत याद आ रही हैं, चारों ओर सन्नाटा है. महीने भर की छुट्टी के बाद लंदन आ गया हूँ.
गाड़ी रुकी है मेन गेट पर, कोई कॉल सेंटर वाला आ या जा रहा होगा. पीएसपीओ वाला पंखा घूमता है किर्र-किर्र की आवाज़ के साथ, टॉयलेट में पानी टपकता है...टिप टुप, टिप टुप...फेंगशुई वाले कहते हैं कि पानी टपकना शुभ नहीं होता.
'यार कमाल हो गया, पांडे भी साला ग़ज़ब आदमी है...' रात के डेढ़ बजे भी पांडे जी की चिंता, पता नहीं किसे सता रही है. बोलने वाला चल रहा था इसलिए आवाज़ भी चली गई. 'चटाक', लगता है गुडनाइट ठीक से काम नहीं कर रहा है.
उफ़, अक्तूबर में इतनी गर्मी, क्लाइमेट चेंज नहीं तो और क्या है. गरदन पर चमड़ी की सिलवटों में जमा होता पसीना. जेनरेटर की भट-भट-भड़-भड़ के तीस सेंकेड बाद पंखे की किर्र-किर्र सुहाने लगी. पावरबैकअप कितना ज़रूरी है.
'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन'...किस चैनल पर आ रहा होगा ये गाना इस वक़्त, कोई कैसेट घूम रहा होगा या रेडियो बज रहा है. ये गाना कौन, कहाँ, कैसे और क्यों बजा रहा होगा. सोना चाहिए, वर्ना बीता हुआ दिन कोई नहीं लौटाएगा और आने वाला दिन ख़राब हो जाएगा.
सुबह
शूँशूँशूँशूँशूँशूँ...बगल वाले फ्लैट का कुकर बोला. शर्मा जी के यहाँ शायद या फिर जसबीर सिंह के घर, हद् है, रात को खाना पकाकर फ्रिज में नहीं रख सकते? कुछ और सो लूँ नहीं तो दिन भर ऊँघता रहूँगा. यही तो सोने का टाइम है और लोग हैं कि...
'मम्मी, मिन्नी मेरी बुक नहीं दे रही है,' 'चलो-चलो, बस मिस करनी है क्या', 'मैम को बता देना'...'ओह हो, मम्मी आप भी हद करते हो'... हमारे स्कूल जाने या न जाने पर कभी इतना हंगामा नहीं हुआ.
'मंगल भवन अमंगल हारीईईईई'... पता नहीं, लाउडस्पीकर बजाने पर लगी क़ानूनी रोक रात से लेकर सुबह कितने बजे तक है. नाइट ड्यूटी करने वाले तो सिर्फ़ इस बाजे की वजह से नास्तिक हो जाएँगे. ख़ैर, अपार्टमेंट से दूर है मंदिर, लेकिन इतना ज़ोर से बजाने की क्या ज़रूरत है.
'ढम्म'. लगता है, अख़बार की लैंडिंग हुई है बालकनी में. थोड़ी देर में देखता हूँ, ज़रा एक और झपकी मार लूँ. ऐसा क्या होगा अख़बारों में, रात को टीवी की ख़बरें और वेबसाइट देखकर सोया हूँ.
'टिंग टू'...'अरे, दूध का बर्तन धुला नहीं है क्या, दूधवाला आया होगा.' 'ढांग, ठन्न, टनननन...' 'भइया, आपको बोला था न कि मंडे से एक्स्ट्रा चाहिए...' 'ठीक है कल से ले आएँगे...' मदर डेयरी है, अमूल ताज़ा है, नानक डेयरी है, सुबह-सुबह तंग करने वालों से दूध लेना पता नहीं क्यों जरूरी है.
'घर्र,घर्र,घर्र,तड़,तड़,तड़,घर्र,घर्र,घर्र..घूँsss...', स्कूटर को तिरछा करके स्टार्ट करने वाले भी हैं इस अपार्टमेंट में, चारों तरफ़ तो सिर्फ़ कारें नज़र आती हैं, शायद ट्रैफ़िक जाम से बचने के लिए. मैं तो फसूँगा ही जाम में ख़ैर...
'डिंग,डां डिंग डू, डैंग डैंग,' मेरा अपना ही अलार्म है अब तो. साढ़े आठ बज गए, उठना ही पड़ेगा. अलार्म सुनकर किसी और की नींद खुलने के आसार नहीं हैं, सब पहले से उठे हुए हैं.
ये आवाज़ें बहुत याद आ रही हैं, चारों ओर सन्नाटा है. महीने भर की छुट्टी के बाद लंदन आ गया हूँ.
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26 सितंबर, 2008
सतरंगे देश को ब्लैक एंड व्हाइट मत बनाइए
अनगिनत रंगो-बू का देश, अनेकता में एकता का देश, रंग-बिरंगे फूलों का गुलदस्ता, इंद्रधनुष की छटा बिखेरना वाला भारत अचानक ब्लैक एंड व्हाइट हो गया है.
तुलसी, सूर, तानसेन, कबीर, रसखान, खुसरो के देश में सिर्फ़ दो छंद, दो सुर, दो ही बातें...या तो ऐसा या फिर वैसा.
शिवरंजनी और मियाँ की मल्हार एक साथ नहीं सुने जा सकते, या तो इसकी बात कर लें या फिर उसकी.
डागर बंधुओं का ध्रुपद, हबीब पेंटर का 'कन्हैया का बालपन' और शंकर-शंभू का 'मन कुंतो मौला'...इन सबके लिए कोई जगह नहीं दिख रही है.
भारत को भारत बनाए रखने के लिए एक संघर्ष की ज़रूरत दिखने लगी है, भारत का अमरीका, ईरान या इसराइल होना कितना आसान हो गया है.
इस समय भारत दो ध्रुवों पर बसा दिख रहा है, आर्कटिक और अंटार्टिक की बर्फ़ पर जा पहुँचे लोगों से अनुरोध है कि वे छह ऋतुओं वाले देश में लौट आएँ. हेमंत, शरद, पावस...सबका आनंद लें.
भारत के अनूठेपन पर ही तो नाज़ है वरना लाख आईटी और नाइन परसेंट ग्रोथ की बात कर लें, असल में आप भी जानते हैकि ग़रीबी की कोढ़ में भ्रष्टाचार की खाज से ज्यादा अगर कुछ है तो बस पैंतीस करोड़ उपभोक्ता.
यह अनूठापन किसी एक रंग, किसी एक रूप, किसी एक रास्ते चलकर नहीं पाया जा सकता, जब सब साथ आते हैं तो पूरी दुनिया उसे मैजिकल इंडिया कहती है.
इस मैजिकल इंडिया में लाल क़िला है, जैन लाल मंदिर है, चिड़ियों का अस्पताल है, सीसगंज गुरुद्वारा है, घंटेवाला का सोहन हलवा है, क़रीम के कबाब हैं, चंदगीराम का अखाड़ा है, सुलेमान मालिशवाला है, वैद्यजी भी हैं और चाँदसी-यूनानी हक़ीम भी हैं, सबके लिए जगह है, दाँत के चीनी डॉक्टर के लिए भी...
दिल्ली, अहमदाबाद में और पहले भी कई शहरों में बम फटे हैं, इन बमों ने कई जानें ली हैं मगर पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के परखच्चे उड़ाने की ताक़त इन बमों में नहीं है.
डर लग रहा है. बम इस-उस चौराहे पर फटे थे, उन्हें रेडक्लिफ़ लाइन मत बनाइए.
जिन लोगों ने बम फोड़ा होगा उन्होंने ऐसी सफलता की कल्पना कभी न की होगी, उन्हें सफल बनाने के लिए आपने तो कुछ नहीं किया है न?
तुलसी, सूर, तानसेन, कबीर, रसखान, खुसरो के देश में सिर्फ़ दो छंद, दो सुर, दो ही बातें...या तो ऐसा या फिर वैसा.
शिवरंजनी और मियाँ की मल्हार एक साथ नहीं सुने जा सकते, या तो इसकी बात कर लें या फिर उसकी.
डागर बंधुओं का ध्रुपद, हबीब पेंटर का 'कन्हैया का बालपन' और शंकर-शंभू का 'मन कुंतो मौला'...इन सबके लिए कोई जगह नहीं दिख रही है.
भारत को भारत बनाए रखने के लिए एक संघर्ष की ज़रूरत दिखने लगी है, भारत का अमरीका, ईरान या इसराइल होना कितना आसान हो गया है.
इस समय भारत दो ध्रुवों पर बसा दिख रहा है, आर्कटिक और अंटार्टिक की बर्फ़ पर जा पहुँचे लोगों से अनुरोध है कि वे छह ऋतुओं वाले देश में लौट आएँ. हेमंत, शरद, पावस...सबका आनंद लें.
भारत के अनूठेपन पर ही तो नाज़ है वरना लाख आईटी और नाइन परसेंट ग्रोथ की बात कर लें, असल में आप भी जानते हैकि ग़रीबी की कोढ़ में भ्रष्टाचार की खाज से ज्यादा अगर कुछ है तो बस पैंतीस करोड़ उपभोक्ता.
यह अनूठापन किसी एक रंग, किसी एक रूप, किसी एक रास्ते चलकर नहीं पाया जा सकता, जब सब साथ आते हैं तो पूरी दुनिया उसे मैजिकल इंडिया कहती है.
इस मैजिकल इंडिया में लाल क़िला है, जैन लाल मंदिर है, चिड़ियों का अस्पताल है, सीसगंज गुरुद्वारा है, घंटेवाला का सोहन हलवा है, क़रीम के कबाब हैं, चंदगीराम का अखाड़ा है, सुलेमान मालिशवाला है, वैद्यजी भी हैं और चाँदसी-यूनानी हक़ीम भी हैं, सबके लिए जगह है, दाँत के चीनी डॉक्टर के लिए भी...
दिल्ली, अहमदाबाद में और पहले भी कई शहरों में बम फटे हैं, इन बमों ने कई जानें ली हैं मगर पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के परखच्चे उड़ाने की ताक़त इन बमों में नहीं है.
डर लग रहा है. बम इस-उस चौराहे पर फटे थे, उन्हें रेडक्लिफ़ लाइन मत बनाइए.
जिन लोगों ने बम फोड़ा होगा उन्होंने ऐसी सफलता की कल्पना कभी न की होगी, उन्हें सफल बनाने के लिए आपने तो कुछ नहीं किया है न?
15 सितंबर, 2008
गाय खाने वाले हिंदू, सूअर खाने वाले मुसलमान
ब्रैंडिंग बी स्कूलों की उपज नहीं है, सबसे पहले आदमी की ही ब्रैंडिंग हुई. वह हिंदू बना, मुसलमान बना, ईसाई बना, यहूदी बना...फिर सब-ब्रांडिंग हुई, शिया-सुन्नी, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट...
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
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26 अगस्त, 2008
सावन सुहाना, भादो भद्दा, आख़िर क्यों?
सावन चला गया. पूरे महीने 'बरसन लागी सावन बूंदियाँ' से लेकर 'बदरा घिरे घिरे आए सवनवा में' जैसे बीसियों गीत मन में गूंजते रहे.
राखी के अगले दिन से भादो आ गया है, भादो भी बारिश का मौसम है लेकिन ऐसा कोई गीत याद नहीं आ रहा जिसमें भादो हो.
भादो के साथ भेदभाव क्यों?
क्या इसलिए कि भादो की बूंदें रिमझिम करके नहीं, भद भद करके बरसती हैं? या इसलिए कि वह सावन जैसा सुहाना नहीं बल्कि भादो जैसा भद्दा सुनाई देता है? या फिर इसलिए कि भादो का तुक कादो से मिलता है?
भादो के किसी गीत को याद करने की कोशिश में सिर्फ़ एक देहाती दोहा याद आया, जो गली से गुज़रते हाथी को छेड़ने के लिए हम बचपन में गाते थे- 'आम के लकड़ी कादो में, हथिया पादे भादो में.'
हाथी अपनी नैसर्गिक शारीरिक क्रिया का निष्-पादन सावन के सुहाने मौसम में रोके रखता था या नहीं, कोई जानकार महावत ही ऐसी गोपनीय बात बता सकता है. सावन में मोर के नाचने, दादुर-पपीहा के गाने के आख्यान तो मिलते हैं, हाथी या किसी दूसरे जंतु के घोर अनरोमांटिक काम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता.
हाथी को भी भादो ही मिला था.
सावन जैसे मौसमों का सवर्ण और भादो दलित है.
बारिश के दो महीनों में से एक इतना रूमानी और दूसरा इतना गलीज़ कैसे हो गया?
जेठ-बैसाख की गर्मी से उकताए लोग आषाढ़-सावन तक शायद अघा जाते हैं फिर उन्हें भादो कैसे भाए?
भादो मुझे बहुत पसंद है क्योंकि उसकी बूंदे बड़ी-बड़ी होती हैं, उसकी बारिश बोर नहीं करती, एक पल बरसी, अगले पल छँटी, अक्सर ऐसी जादुई बारिश दिखती है जो सड़क के इस तरफ़ हो रही होती है, दूसरी तरफ़ नहीं.
कभी भादो में हमारे आंगन के अमरूद पकते थे, रात भर कुएँ में टपकते थे. किसी ताल की तरह, बारिश की टिप-टिप के बीच सम पर कुएँ में गिरा अमरूद. टिप टिप टिप टिप टुप टुप टुप...गुड़ुप.
सावन की बारिश कई दिनों तक लगातार फिस्स-फिस्स करके बरसती है. न भादो की तरह जल्दी से बंद होने वाली, न आषाढ़ की तरह तुरंत प्यास बुझाने वाली.
मगर मेरी बात कौन मानेगा, मेरा मुक़ाबला भारत के कई सौ साल के अनेक महाकवियों से है. भादो को सावन पर भारी करने का कोई उपाय हो तो बताइए.
राखी के अगले दिन से भादो आ गया है, भादो भी बारिश का मौसम है लेकिन ऐसा कोई गीत याद नहीं आ रहा जिसमें भादो हो.
भादो के साथ भेदभाव क्यों?
क्या इसलिए कि भादो की बूंदें रिमझिम करके नहीं, भद भद करके बरसती हैं? या इसलिए कि वह सावन जैसा सुहाना नहीं बल्कि भादो जैसा भद्दा सुनाई देता है? या फिर इसलिए कि भादो का तुक कादो से मिलता है?
भादो के किसी गीत को याद करने की कोशिश में सिर्फ़ एक देहाती दोहा याद आया, जो गली से गुज़रते हाथी को छेड़ने के लिए हम बचपन में गाते थे- 'आम के लकड़ी कादो में, हथिया पादे भादो में.'
हाथी अपनी नैसर्गिक शारीरिक क्रिया का निष्-पादन सावन के सुहाने मौसम में रोके रखता था या नहीं, कोई जानकार महावत ही ऐसी गोपनीय बात बता सकता है. सावन में मोर के नाचने, दादुर-पपीहा के गाने के आख्यान तो मिलते हैं, हाथी या किसी दूसरे जंतु के घोर अनरोमांटिक काम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता.
हाथी को भी भादो ही मिला था.
सावन जैसे मौसमों का सवर्ण और भादो दलित है.
बारिश के दो महीनों में से एक इतना रूमानी और दूसरा इतना गलीज़ कैसे हो गया?
जेठ-बैसाख की गर्मी से उकताए लोग आषाढ़-सावन तक शायद अघा जाते हैं फिर उन्हें भादो कैसे भाए?
भादो मुझे बहुत पसंद है क्योंकि उसकी बूंदे बड़ी-बड़ी होती हैं, उसकी बारिश बोर नहीं करती, एक पल बरसी, अगले पल छँटी, अक्सर ऐसी जादुई बारिश दिखती है जो सड़क के इस तरफ़ हो रही होती है, दूसरी तरफ़ नहीं.
कभी भादो में हमारे आंगन के अमरूद पकते थे, रात भर कुएँ में टपकते थे. किसी ताल की तरह, बारिश की टिप-टिप के बीच सम पर कुएँ में गिरा अमरूद. टिप टिप टिप टिप टुप टुप टुप...गुड़ुप.
सावन की बारिश कई दिनों तक लगातार फिस्स-फिस्स करके बरसती है. न भादो की तरह जल्दी से बंद होने वाली, न आषाढ़ की तरह तुरंत प्यास बुझाने वाली.
मगर मेरी बात कौन मानेगा, मेरा मुक़ाबला भारत के कई सौ साल के अनेक महाकवियों से है. भादो को सावन पर भारी करने का कोई उपाय हो तो बताइए.
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08 अगस्त, 2008
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ मन के कोनों में दबी हुईं
एक डरावना सपना देखा. चारों तरफ़ कचरा है, कचरे के अंबार से घिरा हूँ, कचरे में धंसा जा रहा हूँ, छटपटा रहा हूँ, कचरा लपककर अपने आगोश में लेना चाहता है. किसी एनिमेशन फ़िल्म की तरह.
सपने अक्सर याद नहीं रहते लेकिन कचरे को छोड़कर पूरे दिन कुछ नहीं सूझा, कचरा मेरे लिए वैसे ही बन गया जैसा पीठ पर बोरी लादे किसी बदनसीब बच्चे के लिए होता है.
कचरा, कचरा, कचरा, चारों तरफ़ कचरा ही दिखने लगा.
दफ़्तर में कीबोर्ड पलटा तो असमंजस में सिर खुजाने से गिरे ढेर सारे बाल, हड़बड़ी में खाए सैंडविच के चूरे और बेख़याली में चाय की प्याली से छिटककर गिरे चीनी के कितने ही दाने निकल आए.
दराज़ खोली तो उसमें सब कुछ था जो सहेजने लायक़ समझकर रखा गया था लेकिन अब कचरा दिख रहा था. मेज़ के नीचे, टेबल पर जमा कागज़ के अंबार में, इनबॉक्स में, ऑडियो, वीडियो और न जाने किन-किन शक्लों में.
2004 की टैक्सी की रसीद जिसके ड्राइवर के रवैये के बारे में शिकायत करनी थी लेकिन टाइम नहीं मिला, 2001 में ख़रीदे गए मोबाइल फ़ोन का यूज़र मैनुअल, सबसे सस्ते आइपॉड के विज्ञापन पर लाल कलम से गोला बनाकर रखा गया प्रिंट आउट, 2003 का भारतीय दूतावास का गणतंत्र दिवस का निमंत्रण पत्र, दिमाग़ से मिट चुके किसी ताले की पीली पड़ी चाबी, 2002 में वेस्टर्न यूनियन से भारत भेजे गए पाउंड स्टर्लिंग की रसीद....हुँह, तब पाउंड का रेट क्या था, एक सेकेंड का अंतराल, एक गहरी साँस और सब कुछ कूड़े की पेटी में.
वॉलेट में ढेर सारे आलतू-फ़ालतू लोगों के विजटिंग कार्ड, कई एक्सपायर हो चुके क्रेडिट और डेबिट कार्ड, एक फ़ोन नंबर जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा है, मन हुआ डायल करके पूछूँ- "आप कौन हैं?" फिर लगा जवाब कुछ ऐसा ही मिलेगा, "अरे भाई साहब कैसे याद किया, नहीं पहचाना? मैं कचरा बोल रहा हूँ." डर गया, इरादा छोड़ दिया.
घर में टोस्टर जल गया, कब का फेंका जा चुका लेकिन उसका डिब्बा पड़ा है, फ्रिज के पीछे अब बड़े हो चुके बच्चे के कितने छोटे-छोटे खिलौने गिरे हुए हैं, अलमारी की फाँक में झाँककर देखा, ब्लेयर के प्रधानमंत्री पद छोड़ने के दिन का डेली टेलीग्राफ़, महीनों से गुम हुई कंधी, कब लुढ़कर गया तांबे का सिक्का, ठोकर खाकर छिपी हुई चप्पल...मैंने घबराकर कोने-अँतरों में देखना बंद कर दिया. बतर्ज़ ग़ालिब- ख़ुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा...कहीं याँ भी वही कचरा निकले.
ग़ुस्से में की गई एक फ़िज़ूल हरकत का मलाल, किसी बड़ी ज़रूरत के बिना एक घटिया आदमी से की गई मिन्नत का अफ़सोस, कुछ न कर पाने का दुख, कुछ अनचाहा कर डालने का पछतावा, किसी से मिला छोटा सा छलावा, किसी को दिया एक बड़ा भुलावा, कुछ न कर सकने की खीस, कर सकने के बावजूद न करने की टीस...इन सब बातों की मुड़ी-तुड़ी रसीदें और पर्चियाँ मन के फाँकों-कोनों में दबी हैं. उन्हें किस कूड़ेदान में डाल दूँ.
मैंने अपने आकार और औक़ात से कहीं अधिक कचरा पैदा किया है, मेरा पूरा अस्तित्व मेरे अपने कचरे के सामने बिल्कुल बौना दिखता है.
आइ एम मच स्मॉलर देन माइ ओन रबिश.
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
मुझे जैसा सपना आया था, आपको क्यों नहीं आता? क्या आपने अपने दफ़्तर, घर और मन के सारे कचरे फेंक दिए हैं? अगर हाँ, तो किस कूड़ेदान में?
सपने अक्सर याद नहीं रहते लेकिन कचरे को छोड़कर पूरे दिन कुछ नहीं सूझा, कचरा मेरे लिए वैसे ही बन गया जैसा पीठ पर बोरी लादे किसी बदनसीब बच्चे के लिए होता है.
कचरा, कचरा, कचरा, चारों तरफ़ कचरा ही दिखने लगा.
दफ़्तर में कीबोर्ड पलटा तो असमंजस में सिर खुजाने से गिरे ढेर सारे बाल, हड़बड़ी में खाए सैंडविच के चूरे और बेख़याली में चाय की प्याली से छिटककर गिरे चीनी के कितने ही दाने निकल आए.
दराज़ खोली तो उसमें सब कुछ था जो सहेजने लायक़ समझकर रखा गया था लेकिन अब कचरा दिख रहा था. मेज़ के नीचे, टेबल पर जमा कागज़ के अंबार में, इनबॉक्स में, ऑडियो, वीडियो और न जाने किन-किन शक्लों में.
2004 की टैक्सी की रसीद जिसके ड्राइवर के रवैये के बारे में शिकायत करनी थी लेकिन टाइम नहीं मिला, 2001 में ख़रीदे गए मोबाइल फ़ोन का यूज़र मैनुअल, सबसे सस्ते आइपॉड के विज्ञापन पर लाल कलम से गोला बनाकर रखा गया प्रिंट आउट, 2003 का भारतीय दूतावास का गणतंत्र दिवस का निमंत्रण पत्र, दिमाग़ से मिट चुके किसी ताले की पीली पड़ी चाबी, 2002 में वेस्टर्न यूनियन से भारत भेजे गए पाउंड स्टर्लिंग की रसीद....हुँह, तब पाउंड का रेट क्या था, एक सेकेंड का अंतराल, एक गहरी साँस और सब कुछ कूड़े की पेटी में.
वॉलेट में ढेर सारे आलतू-फ़ालतू लोगों के विजटिंग कार्ड, कई एक्सपायर हो चुके क्रेडिट और डेबिट कार्ड, एक फ़ोन नंबर जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा है, मन हुआ डायल करके पूछूँ- "आप कौन हैं?" फिर लगा जवाब कुछ ऐसा ही मिलेगा, "अरे भाई साहब कैसे याद किया, नहीं पहचाना? मैं कचरा बोल रहा हूँ." डर गया, इरादा छोड़ दिया.
घर में टोस्टर जल गया, कब का फेंका जा चुका लेकिन उसका डिब्बा पड़ा है, फ्रिज के पीछे अब बड़े हो चुके बच्चे के कितने छोटे-छोटे खिलौने गिरे हुए हैं, अलमारी की फाँक में झाँककर देखा, ब्लेयर के प्रधानमंत्री पद छोड़ने के दिन का डेली टेलीग्राफ़, महीनों से गुम हुई कंधी, कब लुढ़कर गया तांबे का सिक्का, ठोकर खाकर छिपी हुई चप्पल...मैंने घबराकर कोने-अँतरों में देखना बंद कर दिया. बतर्ज़ ग़ालिब- ख़ुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा...कहीं याँ भी वही कचरा निकले.
ग़ुस्से में की गई एक फ़िज़ूल हरकत का मलाल, किसी बड़ी ज़रूरत के बिना एक घटिया आदमी से की गई मिन्नत का अफ़सोस, कुछ न कर पाने का दुख, कुछ अनचाहा कर डालने का पछतावा, किसी से मिला छोटा सा छलावा, किसी को दिया एक बड़ा भुलावा, कुछ न कर सकने की खीस, कर सकने के बावजूद न करने की टीस...इन सब बातों की मुड़ी-तुड़ी रसीदें और पर्चियाँ मन के फाँकों-कोनों में दबी हैं. उन्हें किस कूड़ेदान में डाल दूँ.
मैंने अपने आकार और औक़ात से कहीं अधिक कचरा पैदा किया है, मेरा पूरा अस्तित्व मेरे अपने कचरे के सामने बिल्कुल बौना दिखता है.
आइ एम मच स्मॉलर देन माइ ओन रबिश.
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
मुझे जैसा सपना आया था, आपको क्यों नहीं आता? क्या आपने अपने दफ़्तर, घर और मन के सारे कचरे फेंक दिए हैं? अगर हाँ, तो किस कूड़ेदान में?
21 जुलाई, 2008
निम्न मध्यवर्गीय चौमासे का एक अध्याय
टिप टिप.. टुप टुप...बारिश के दिन कितने सुहाने होते हैं, तवे की तरह तपती ज़मीन के लिए. देश में कितनी छतें टपकती हैं इसके पुख़्ता आंकड़े कहीं उपलब्ध होंगे, ऐसा लगता तो नहीं है. इस बीच कोई राष्ट्रीय टपकन निदेशालय बन गया हो और मुझे पता न हो तो माफ़ी चाहता हूँ.
आंकड़ों का जाल और भी उलझ सकता है क्योंकि छतों से पानी टपकता है, और छप्परों से भी, हमारे घर में दोनों थे और दोनों टपकते थे. कहीं-कहीं दोनों नहीं टपकते थे, और कहीं कहीं दोनों में से कोई नहीं था.
आया सावन झूम के, काली घटा छाई प्रेम रुत आई ...मेरा लाखों का सावन जाए...जैसे गाने सुनकर बड़े होने के बावजूद मेरी समझ में कभी नहीं आया कि घुटनों तक कीचड़, लबालब बहती काली नाली में उतराते टमाटर, साइकिल के सड़े टायर, प्लास्टिक की गुड़िया, छतरी का डंडा और टूटी चप्पल को देखकर हमारा मन गिजगिजा-सा होता था, सलोनी नायिका क्या देखकर झूमने लगती थी.
अधसूखे कपड़ों की गंध, साइकिल के टायर की रिम पर लगी जंग, दीवार पर जमी हरी काई, आँगन में वर्ल्ड क्लास आइसरिंक जैसी फिसलन, पंक-पयोधि में चप्पल पहनकर चलने से पैंट के निचले-पिछले हिस्से पर बने बूंदी शैली की कलाकृति...पूरे घर में जगह-जगह टपके के नीचे रखे बर्तनों में बजता जलतरंग...यही यादें हैं बरसात के दिनों की.
तपिश से निजात का सुख समझ पाते इससे पहले सीली लकड़ी की सी घुँआती उदासी घेर लेती. सड़क पर गलीज़, घर में उसकी गंध और मन में सबसे मिल-जुलकर बनी गुमसाइन घुटन. छप्पर के सिरे पर टपकता पानी, नेनुआ-झींगी की सरपट बढ़ती लत्तर और अनगिनत गीले छछूंदर, तिलचट्टे, कनगोजर और फतिंगे. लहलहाकर फूली मालती, बरसाती अमरूद, अपनी मर्ज़ी से उगे अखज-बलाय पौधे, भुए, घोंघे और काले-पीले मेढ़क एक ख़ास किच-किच, पिच-पिच वाले मौसम के हिस्से थे.
ये तो अब समझ में आता है कि हमारे घर में जैसी जैव विविधता थी उसे देखकर यूरोपीय जीव वैज्ञानिक पूरी किताब लिख डालते.
नींबू-मसाले वाले भुने भुट्टे टाइप की मेरी यादों पर कीचड़ की एक परत जमी हुई है. लगता नहीं है कीचड़ के साथ आपका उनका रसास्वादन करना चाहेंगे, या कीचड़ हटाने की ज़हमत उठाएँगे इसलिए फ़िलहाल रहने दीजिए.
जिनके घरों में पानी न टपकता हो वे अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ-लजाएँ तो बड़ी मेहरबानी होगी.
आंकड़ों का जाल और भी उलझ सकता है क्योंकि छतों से पानी टपकता है, और छप्परों से भी, हमारे घर में दोनों थे और दोनों टपकते थे. कहीं-कहीं दोनों नहीं टपकते थे, और कहीं कहीं दोनों में से कोई नहीं था.
आया सावन झूम के, काली घटा छाई प्रेम रुत आई ...मेरा लाखों का सावन जाए...जैसे गाने सुनकर बड़े होने के बावजूद मेरी समझ में कभी नहीं आया कि घुटनों तक कीचड़, लबालब बहती काली नाली में उतराते टमाटर, साइकिल के सड़े टायर, प्लास्टिक की गुड़िया, छतरी का डंडा और टूटी चप्पल को देखकर हमारा मन गिजगिजा-सा होता था, सलोनी नायिका क्या देखकर झूमने लगती थी.
अधसूखे कपड़ों की गंध, साइकिल के टायर की रिम पर लगी जंग, दीवार पर जमी हरी काई, आँगन में वर्ल्ड क्लास आइसरिंक जैसी फिसलन, पंक-पयोधि में चप्पल पहनकर चलने से पैंट के निचले-पिछले हिस्से पर बने बूंदी शैली की कलाकृति...पूरे घर में जगह-जगह टपके के नीचे रखे बर्तनों में बजता जलतरंग...यही यादें हैं बरसात के दिनों की.
तपिश से निजात का सुख समझ पाते इससे पहले सीली लकड़ी की सी घुँआती उदासी घेर लेती. सड़क पर गलीज़, घर में उसकी गंध और मन में सबसे मिल-जुलकर बनी गुमसाइन घुटन. छप्पर के सिरे पर टपकता पानी, नेनुआ-झींगी की सरपट बढ़ती लत्तर और अनगिनत गीले छछूंदर, तिलचट्टे, कनगोजर और फतिंगे. लहलहाकर फूली मालती, बरसाती अमरूद, अपनी मर्ज़ी से उगे अखज-बलाय पौधे, भुए, घोंघे और काले-पीले मेढ़क एक ख़ास किच-किच, पिच-पिच वाले मौसम के हिस्से थे.
ये तो अब समझ में आता है कि हमारे घर में जैसी जैव विविधता थी उसे देखकर यूरोपीय जीव वैज्ञानिक पूरी किताब लिख डालते.
नींबू-मसाले वाले भुने भुट्टे टाइप की मेरी यादों पर कीचड़ की एक परत जमी हुई है. लगता नहीं है कीचड़ के साथ आपका उनका रसास्वादन करना चाहेंगे, या कीचड़ हटाने की ज़हमत उठाएँगे इसलिए फ़िलहाल रहने दीजिए.
जिनके घरों में पानी न टपकता हो वे अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ-लजाएँ तो बड़ी मेहरबानी होगी.
19 जुलाई, 2008
अर्थ की तलाश व्यर्थ की तलाश
अजीब-सा सपना देखा, मैं ज़ोर से बोल रहा था लेकिन अपने ही शब्द सुन नहीं पा रहा था. नींद में मेरे होंठ हिल रहे थे लेकिन कान और दिमाग़ मिलकर कोई अर्थ नहीं, सिर्फ़ बेचैनी रच रहे थे.
यह गिने-चुने सपनों में था जो पूरे दिन याद रहा. रिप्ले कर-करके कितने ही अर्थ ढूँढता रहा.
शब्दों के गुम होते अर्थ पर पिछली शाम एक दोस्त के साथ हुई बहस याद आई, एक फ़िज़ूल लेख का ख़याल आया जिसके बारे में मैंने कहा था- 'पाँच सौ शब्दों की आपराधिक बर्बादी', या फिर फ़ोन रिसीव करने के लिए बेटे का कार्टून चैनल म्यूट कर दिया था जिसकी वजह से ये सपना आया...या कि मेरे मोबाइल पर आज दो-तीन फ़ोन आए जिनमें कोई आवाज़ नहीं आ रही थी...
वजह जो भी हो, सपना था घबराहट भरने वाला. शब्दों में ध्वनि हो लेकिन अर्थ न हों, शब्दों की वर्तनी हो लेकिन कोई मायने न हो. कितनी भयानक बात है न!
रोज़मर्रा के संसार में कुछ घंटे बिताने के बाद लगा कि ऐसी कोई भयानक बात नहीं है. सब तरफ़ सुख-चैन है.
कोई ऐसा शब्द नहीं मिला जिसमें अर्थ हो, कोई ऐसी वर्तनी नहीं मिली जिसमें मायने हों.
जो प्रहसन है उसे लोग गंभीर राजनीतिक चर्चा बता रहे हैं, जिन बातों पर चिंता होनी चाहिए उन पर मनोरंजन हो रहा है...लेकिन किसी को वैसी घबराहट नहीं हो रही जैसी मुझे कल आधी रात को हुई थी.
आधी रात की नीम बेहोशी का सच या भरी दोपहरी की भागदौड़ का झूठ. सच कितना झूठा है, झूठ कितना सच्चा है. आप ही बताइए!
यह गिने-चुने सपनों में था जो पूरे दिन याद रहा. रिप्ले कर-करके कितने ही अर्थ ढूँढता रहा.
शब्दों के गुम होते अर्थ पर पिछली शाम एक दोस्त के साथ हुई बहस याद आई, एक फ़िज़ूल लेख का ख़याल आया जिसके बारे में मैंने कहा था- 'पाँच सौ शब्दों की आपराधिक बर्बादी', या फिर फ़ोन रिसीव करने के लिए बेटे का कार्टून चैनल म्यूट कर दिया था जिसकी वजह से ये सपना आया...या कि मेरे मोबाइल पर आज दो-तीन फ़ोन आए जिनमें कोई आवाज़ नहीं आ रही थी...
वजह जो भी हो, सपना था घबराहट भरने वाला. शब्दों में ध्वनि हो लेकिन अर्थ न हों, शब्दों की वर्तनी हो लेकिन कोई मायने न हो. कितनी भयानक बात है न!
रोज़मर्रा के संसार में कुछ घंटे बिताने के बाद लगा कि ऐसी कोई भयानक बात नहीं है. सब तरफ़ सुख-चैन है.
कोई ऐसा शब्द नहीं मिला जिसमें अर्थ हो, कोई ऐसी वर्तनी नहीं मिली जिसमें मायने हों.
जो प्रहसन है उसे लोग गंभीर राजनीतिक चर्चा बता रहे हैं, जिन बातों पर चिंता होनी चाहिए उन पर मनोरंजन हो रहा है...लेकिन किसी को वैसी घबराहट नहीं हो रही जैसी मुझे कल आधी रात को हुई थी.
आधी रात की नीम बेहोशी का सच या भरी दोपहरी की भागदौड़ का झूठ. सच कितना झूठा है, झूठ कितना सच्चा है. आप ही बताइए!
02 जुलाई, 2008
पोते के नाम थर्डवर्ल्ड के अम्मा-बाबा का संदेश
अगले शनिवार को मेरा बेटा चार साल का हो जाएगा, हम ख़ुश हैं कि वीकेंड है, बच्चों की कोई छोटी सी पार्टी कर लेंगे. बच्चे के बाबा-अम्मा (दादा-दादी) कई हज़ार किलोमीटर दूर बैठे तीन हफ़्ते से हलक़ान हो रहे हैं कि पोते का जन्मदिन आ रहा है, टाइम पर कार्ड मिलना चाहिए, पहुंचने में पता नहीं कितना वक़्त लगे.
सत्तर पार कर चुके बाबा मानसून के मौसम में कितने सरोवरों से गुज़रकर, पता नहीं कहाँ गए होंगे ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदने. अम्मा-बाबा ने टिप-टिप करती दुपहरी पोते के लिए संदेश लिखने में ख़र्च की होगी. घर के पास कोई पोस्ट बॉक्स भी नहीं है, वे रिक्शे से जीपीओ गए होंगे, लाइन में लगकर लिफ़ाफ़ा रवाना किया होगा, इस आस के साथ कि मिल जाए और वक़्त पर मिल जाए. पिछले पाँच दिन से जब फ़ोन करो, एक ही सवाल होता है--"कार्ड मिला कि नहीं".
रुपए के नींबू तीन कि चार, इसी पर दस मिनट तक बहस करने वाले रिटायर्ड बाबा ने एक पल नहीं सोचा कि इस कार्ड के तीस रूपए क्यों. पोता ख़ुश होगा, कार्ड पर फुटबॉल बना है और दो गोरे लड़के खुश दिख रहे हैं, पोता उनके साथ आइडेंटिफाई कर सकता है. अपने इलाक़े के बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं लेकिन उनके फोटो वाला कार्ड थोड़े न छपता और बिकता है.
अम्मा-बाबा आपकी मेहनत सफल हो गई है, पोते का 'हैप्पी बर्थडे कार्ड' मिल गया है, जन्मदिन से तीन दिन पहले. पोते को कार्ड पढ़कर सुना दिया गया है. सुविधा के लिए बाबा ने अँगरेज़ी में लिखा है, प्यार से अम्मा ने हिंदी में. मज़मून एक ही है.
अनुवाद अम्मा ने कर दिया है, या फिर बाबा ने अम्मा वाले का अनुवाद अँगरेज़ी में किया है. वैसे तो बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि अनुवाद अँगरेज़ी से हिंदी में किया गया है या हिंदी से अँगरेज़ी में. मगर इस मामले में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.
बाबा-अम्मा का पत्र शब्दशः
....................
ऊँ नमः शिवाय
दिनाँक 26-06-2008
परम प्रिय चिरंजीव कृष्णाजी,
अम्मा-बाबा की ओर से ढेर सारा प्यार और शुभ आशीर्वाद, जन्मदिन मुबारक. तुम्हारा चौथा दिन है, तुम खूब खुश रहो, पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहो. अपने पापा मम्मी की सब बातें मानना और उनको खुश रखना. पढ़ाई में मन लगाना. तुम जब लिखना सीख जाओगे तब हमें चिट्ठी लिखना. ईश्वर तुम्हें सारी प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करें. जीवन में खूब उन्नति करो.
ढेर सारे प्यार के साथ
तुम्हारे अम्मा-बाबा
........................
पूरी चिट्ठी सुनने और कार्ड उलट-पलटकर देखने के बाद अनपढ़ पोते ने कहा है--थैंक यू.
बाबा को ठीक-ठीक पता नहीं है, उनका जन्मदिन मकरसंक्राति के एक दिन पहले होता है या एक दिन बाद. कार्ड भेजने, केक काटने का सिलसिला उनके लिए कभी नहीं हुआ, हमारा जन्मदिन मनाया गया और अब पोते का.
मैं कुछ ज्यादा भावुक हो रहा हूँ. रहने दीजिए, इतना बता दीजिए कि पीढ़ियों का यह प्यार ऊपर से नीचे ही क्यों चलता है, नीचे से ऊपर क्यों नहीं.
क्या यही वह जेनेटिक कोडिंग है जो हर अगली पीढ़ी को सींचती जाती है ताकि मानवीय जीवन धरती पर क़ायम रहे. क्या पलटकर उस प्यार को आत्मसात करने और महसूस करने का कोई गुणसूत्र हममें नहीं हैं, अगर हैं तो इतने क्षीण क्यों हैं?
सत्तर पार कर चुके बाबा मानसून के मौसम में कितने सरोवरों से गुज़रकर, पता नहीं कहाँ गए होंगे ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदने. अम्मा-बाबा ने टिप-टिप करती दुपहरी पोते के लिए संदेश लिखने में ख़र्च की होगी. घर के पास कोई पोस्ट बॉक्स भी नहीं है, वे रिक्शे से जीपीओ गए होंगे, लाइन में लगकर लिफ़ाफ़ा रवाना किया होगा, इस आस के साथ कि मिल जाए और वक़्त पर मिल जाए. पिछले पाँच दिन से जब फ़ोन करो, एक ही सवाल होता है--"कार्ड मिला कि नहीं".
रुपए के नींबू तीन कि चार, इसी पर दस मिनट तक बहस करने वाले रिटायर्ड बाबा ने एक पल नहीं सोचा कि इस कार्ड के तीस रूपए क्यों. पोता ख़ुश होगा, कार्ड पर फुटबॉल बना है और दो गोरे लड़के खुश दिख रहे हैं, पोता उनके साथ आइडेंटिफाई कर सकता है. अपने इलाक़े के बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं लेकिन उनके फोटो वाला कार्ड थोड़े न छपता और बिकता है.
अम्मा-बाबा आपकी मेहनत सफल हो गई है, पोते का 'हैप्पी बर्थडे कार्ड' मिल गया है, जन्मदिन से तीन दिन पहले. पोते को कार्ड पढ़कर सुना दिया गया है. सुविधा के लिए बाबा ने अँगरेज़ी में लिखा है, प्यार से अम्मा ने हिंदी में. मज़मून एक ही है.
अनुवाद अम्मा ने कर दिया है, या फिर बाबा ने अम्मा वाले का अनुवाद अँगरेज़ी में किया है. वैसे तो बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि अनुवाद अँगरेज़ी से हिंदी में किया गया है या हिंदी से अँगरेज़ी में. मगर इस मामले में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.
बाबा-अम्मा का पत्र शब्दशः
....................
ऊँ नमः शिवाय
दिनाँक 26-06-2008
परम प्रिय चिरंजीव कृष्णाजी,
अम्मा-बाबा की ओर से ढेर सारा प्यार और शुभ आशीर्वाद, जन्मदिन मुबारक. तुम्हारा चौथा दिन है, तुम खूब खुश रहो, पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहो. अपने पापा मम्मी की सब बातें मानना और उनको खुश रखना. पढ़ाई में मन लगाना. तुम जब लिखना सीख जाओगे तब हमें चिट्ठी लिखना. ईश्वर तुम्हें सारी प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करें. जीवन में खूब उन्नति करो.
ढेर सारे प्यार के साथ
तुम्हारे अम्मा-बाबा
........................
पूरी चिट्ठी सुनने और कार्ड उलट-पलटकर देखने के बाद अनपढ़ पोते ने कहा है--थैंक यू.
बाबा को ठीक-ठीक पता नहीं है, उनका जन्मदिन मकरसंक्राति के एक दिन पहले होता है या एक दिन बाद. कार्ड भेजने, केक काटने का सिलसिला उनके लिए कभी नहीं हुआ, हमारा जन्मदिन मनाया गया और अब पोते का.
मैं कुछ ज्यादा भावुक हो रहा हूँ. रहने दीजिए, इतना बता दीजिए कि पीढ़ियों का यह प्यार ऊपर से नीचे ही क्यों चलता है, नीचे से ऊपर क्यों नहीं.
क्या यही वह जेनेटिक कोडिंग है जो हर अगली पीढ़ी को सींचती जाती है ताकि मानवीय जीवन धरती पर क़ायम रहे. क्या पलटकर उस प्यार को आत्मसात करने और महसूस करने का कोई गुणसूत्र हममें नहीं हैं, अगर हैं तो इतने क्षीण क्यों हैं?
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