एक डरावना सपना देखा. चारों तरफ़ कचरा है, कचरे के अंबार से घिरा हूँ, कचरे में धंसा जा रहा हूँ, छटपटा रहा हूँ, कचरा लपककर अपने आगोश में लेना चाहता है. किसी एनिमेशन फ़िल्म की तरह.
सपने अक्सर याद नहीं रहते लेकिन कचरे को छोड़कर पूरे दिन कुछ नहीं सूझा, कचरा मेरे लिए वैसे ही बन गया जैसा पीठ पर बोरी लादे किसी बदनसीब बच्चे के लिए होता है.
कचरा, कचरा, कचरा, चारों तरफ़ कचरा ही दिखने लगा.
दफ़्तर में कीबोर्ड पलटा तो असमंजस में सिर खुजाने से गिरे ढेर सारे बाल, हड़बड़ी में खाए सैंडविच के चूरे और बेख़याली में चाय की प्याली से छिटककर गिरे चीनी के कितने ही दाने निकल आए.
दराज़ खोली तो उसमें सब कुछ था जो सहेजने लायक़ समझकर रखा गया था लेकिन अब कचरा दिख रहा था. मेज़ के नीचे, टेबल पर जमा कागज़ के अंबार में, इनबॉक्स में, ऑडियो, वीडियो और न जाने किन-किन शक्लों में.
2004 की टैक्सी की रसीद जिसके ड्राइवर के रवैये के बारे में शिकायत करनी थी लेकिन टाइम नहीं मिला, 2001 में ख़रीदे गए मोबाइल फ़ोन का यूज़र मैनुअल, सबसे सस्ते आइपॉड के विज्ञापन पर लाल कलम से गोला बनाकर रखा गया प्रिंट आउट, 2003 का भारतीय दूतावास का गणतंत्र दिवस का निमंत्रण पत्र, दिमाग़ से मिट चुके किसी ताले की पीली पड़ी चाबी, 2002 में वेस्टर्न यूनियन से भारत भेजे गए पाउंड स्टर्लिंग की रसीद....हुँह, तब पाउंड का रेट क्या था, एक सेकेंड का अंतराल, एक गहरी साँस और सब कुछ कूड़े की पेटी में.
वॉलेट में ढेर सारे आलतू-फ़ालतू लोगों के विजटिंग कार्ड, कई एक्सपायर हो चुके क्रेडिट और डेबिट कार्ड, एक फ़ोन नंबर जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा है, मन हुआ डायल करके पूछूँ- "आप कौन हैं?" फिर लगा जवाब कुछ ऐसा ही मिलेगा, "अरे भाई साहब कैसे याद किया, नहीं पहचाना? मैं कचरा बोल रहा हूँ." डर गया, इरादा छोड़ दिया.
घर में टोस्टर जल गया, कब का फेंका जा चुका लेकिन उसका डिब्बा पड़ा है, फ्रिज के पीछे अब बड़े हो चुके बच्चे के कितने छोटे-छोटे खिलौने गिरे हुए हैं, अलमारी की फाँक में झाँककर देखा, ब्लेयर के प्रधानमंत्री पद छोड़ने के दिन का डेली टेलीग्राफ़, महीनों से गुम हुई कंधी, कब लुढ़कर गया तांबे का सिक्का, ठोकर खाकर छिपी हुई चप्पल...मैंने घबराकर कोने-अँतरों में देखना बंद कर दिया. बतर्ज़ ग़ालिब- ख़ुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा...कहीं याँ भी वही कचरा निकले.
ग़ुस्से में की गई एक फ़िज़ूल हरकत का मलाल, किसी बड़ी ज़रूरत के बिना एक घटिया आदमी से की गई मिन्नत का अफ़सोस, कुछ न कर पाने का दुख, कुछ अनचाहा कर डालने का पछतावा, किसी से मिला छोटा सा छलावा, किसी को दिया एक बड़ा भुलावा, कुछ न कर सकने की खीस, कर सकने के बावजूद न करने की टीस...इन सब बातों की मुड़ी-तुड़ी रसीदें और पर्चियाँ मन के फाँकों-कोनों में दबी हैं. उन्हें किस कूड़ेदान में डाल दूँ.
मैंने अपने आकार और औक़ात से कहीं अधिक कचरा पैदा किया है, मेरा पूरा अस्तित्व मेरे अपने कचरे के सामने बिल्कुल बौना दिखता है.
आइ एम मच स्मॉलर देन माइ ओन रबिश.
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
मुझे जैसा सपना आया था, आपको क्यों नहीं आता? क्या आपने अपने दफ़्तर, घर और मन के सारे कचरे फेंक दिए हैं? अगर हाँ, तो किस कूड़ेदान में?
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16 टिप्पणियां:
ब्लॉग पर जी ब्लॉग पर.. :)
अनामदास जी,
बी बी सी पे देखा था
आफ्रीका के एक "अनाम से " क्षेत्र मेँ अमरीका से ढेरोँ discard हुए कम्प्युटर तथा अन्य आधुनिक उपकरणोँ का अँबार रोज ही दरिआई जहाजोँ मेँ भरकर टोक्सीक वेस्ट बनकर ,
उस क्षेत्रको बर्बाद कर रहा है -
बहुत सारे ऐसे ही कचरोँ को कहीँ ना कहीँ फेँक कर
भूलाया जा रहा है -
यही २१ वीँ सदी का सत्य है ! :(
- लावण्या
Kavita-sa hai .
यही तो शोधन की प्रक्रिया है भाई। बचपन में भ्रम था कि मैडम क्यूरी ने पहाड जित्ते कचरे से रेडियम निकाला था। ऐसी ही रेडियम की तलाश ज़रूरी है जो अंधेरे में भी चमकता रहे। अच्छा लिखा है, मंथन उत्तम है।
जय सियाराम की! जी, होजुर, कचरा कुलशाली बोल रहा हूं..
आपके सपने दिन ब दिन इन्टर्स्टिंग होते जा रहे हैं...
पर अब बात उठाई है तो...कभी लगता है किसी इमेल एकाउंट की तरह सब डिलीट बटन से सँभव हो जाना चाहिए। फिर ट्रैश में...जो की तीस दिन के बाद ऑटोमैटिकली डिलीटड फॉर एवर। एक 'मूव टू इनबॉक्स' भी होना चाहिए कि कोई चीज़ डिलीट करने के बाद पसंद आये तो सहेजा जा सके।
वैसे देखा जाये तो रिसायकल और रियूस का ट्रैन्ड है.....फिर 'जंक' घर का हो या मन का...
सच में, अपने आसपास, मस्तिष्क में भी, न जाने कितना कचरा इकट्ठा कर रखा है। विभिन्न दिनों की तरह एक दिन कचरा मुक्ति दिवस के तौर पर मनाना होगा। परन्तु एक दिन क्या कम नहीं पड़ेगा? सप्ताह मनाना होगा।
घुघूती बासूती
सही कहा आपने.
पूरी जिंदगी ही कचरे में डूबी हुई है.
ग़नीमत है कि आपको सिर्फ सपने आते हैं. यहाँ तो हम पूरे कचरे में इस कदर डूबे हैं कि कचरे का हिस्सा हो गये हैं...
ओ भाई । आपने अपनी मनोदशा लिखी है या हमारी । ये हमारी पहले है और आपकी मनोदशा बाद में ।
जब गर्द- सर्द सपने, उम्र के दराजों को ज़्यादा भरने लगने लगें, तो कहते हैं स्थान बदल लेने के मौसम शुरू हो जाते हैं - [ या गीता पाठ के ?? (:-)] - मनीष
दुष्यंत का शेर याद आ गया -
बहुत संभाल कर रखी तो पाएमाल हुई
सड़क पर फेंक दी तो जिंदगी निहाल हुई
मेरे जेहन पर जमाने का वो दबाव पड़ा
जो जिंदगी स्लेट थी वह सवाल हुई
-मेरे लिखने में शब्द बदल गए हों तो आश्चर्य नहीं।
आपने बिल्कुल सही जगह डाला है
आगे की चिन्ता तो
देखने-पढ़ने वालों की
आपकी इस रचना को पढकर सोच में डूबी हूं !अब तक क्या किया जीवन क्या जिया ....
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
सही कहा.
जिंदगी घटने के साथ बढ़ता तो कचरा ही है। सहेज सको तो अपनी जिंदगी कचरे के साथ सहेज लो।
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