ब्रैंडिंग बी स्कूलों की उपज नहीं है, सबसे पहले आदमी की ही ब्रैंडिंग हुई. वह हिंदू बना, मुसलमान बना, ईसाई बना, यहूदी बना...फिर सब-ब्रांडिंग हुई, शिया-सुन्नी, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट...
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
15 सितंबर, 2008
गाय खाने वाले हिंदू, सूअर खाने वाले मुसलमान
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18 टिप्पणियां:
एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
--साधुवाद इस सोच अर..काश, सब ऐसे ही सोच पाते तो कितना अमन होता!!
अनब्रांडेड लोगों को ब्रांडेड लोगों से अधिक दिक्कतें झेलनी पड़ती है, उसी तरह जैसे बिना किसी लेबिल के उत्पाद को हीन मान लिया जाता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... कतई कतई कतई सही नहीं है
ये तसल्लीजनक , सुकूनदायक सोच कितनी दुर्लभ है | अनामदास खुद ईद के चांद हो गये हैं |
सच्चाई से आँखे चुराना भी उतना ही गलत होता है.
अविश्वास के इस मौसम में, जब संशय के काले बादल अंधेरा फैला रहे हों, आपकी ये टिप्पणी आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को फॉरवर्ड करें - मैं भी करता हूं।
दिमाग के कुछ सोये हुए हिस्सों को जगाने वाला एक लेख.....सचमुच......
गुणावगुण व्यक्ति आर्धारित देखा जाना चाहिये। एक व्यक्ति का विश्लेषण ही कठिन काम है; पूरे जाति-वर्ग-समाज पर टैग लगाना ईमानदारी नहीं।
अनामदास जी, इस सोच और मुहिम की जरूरत है. सच कहें तो इसी मुहिम की जरूरत है...
खबरी
http://deveshkhabri.blogspot.com/
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
काश सभी ऐसा सोच पाते...
इग्नोरेंस से उपजते हैं वे पूर्वाग्रह जिनकी ओर लेख इशारा कर रहा है, ख़ुले दिमाग़ वाले को सारे बंगाली मछली खाते नहीं दिखते, ना सारे बिहारी बुद्धू। फिर चीज़ें बदल भी रही हैं - क्या से सत्य नहीं कि आज मुल्ला ब्रांड हो या मोदी ब्रांड - उनकी मिट्टी पलीद करनेवालों में हर ब्रांड के लोग शामिल हैं, हिंदू हों चाहे मुसलमान? आसानी से हर चीज़ को सही मनवा लेने का ज़माना अब इतना आसान नहीं है। अमुक ब्रांड-तमुक ब्रांड में घिरे रहकर भी बे-ब्रांड सोच रखनेवालों का वजूद ख़त्म नहीं हुआ - स्वयं आपका लेख उसका प्रमाण है।
"........आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों."..........
वाह वाह वाह,क्या बात कही आपने .एकदम सहेजकर रखने लायक लेख.बहुत ही उम्दा,विचारणीय. ईश्वर करें यह लोगों के दिलों में उतर उसे झिंझोड़ जाए.
In the Complete LIGHT & Intense Darkness, the shades of GREY too
linger in between.
Let us hope that the "Meek shall
inherit the World "
as the Bible says !
( sorry to comment in English,
I'm away from my PC )
सही लिखा है भाई अनामदास जी. मराठी, गुजराती, तमिल, कन्नड़, बिहारी, बंगाली, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख, जैन ब्रांड तो बिना ढूंढें और धमकाते हुए मिल जायेंगे आपको लेकिन मनुष्य नामक ब्रांड की बात करने वाले मनुष्य विश्व समाजों में लगातार घट रहे हैं. आश्चर्य है ब्लॉग जगत में सड़ांध मचाने वाले कई 'ब्रांड' आप पर टूट क्यों नहीं पड़े. इससे साबित है कि आपने बात पते की कह दी है.
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया। काफी सुंदर आलेख, बहुत अच्छी बात लगी कि
'जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.'
"ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों..." और भड़काने वाले, फोड़ने वाले और बाद में सफाई देने वाले निर्विकल्प एक समुदाय से ही आते हों. किसी भी समूह का सरलीकरण बुरी बात है मगर बिना आग के धुंआ नहीं होता है अनामदास जी.
बधाई, बहुत अच्छा और सुरुचिपूर्ण लेख है.
aapne hindi me likha, yeh padhkar aur jaankar man ko atyadhik khushi huiyi ki aaj bhi hindi ko manane wale is duniya me hai, alsubah yah post padh kar dil bag bag ho gaya aur is umeed ke saath me dobara is blog par aana chahunga :)
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
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