17 जनवरी, 2010

पॉलिश जैसी स्याह क़िस्मत

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के चौदह नंबर प्लेटफार्म पर सैकड़ों जूतों को स्कैन करता बारह साल का एक लड़का मेरे सामने रुका, "पॉलिश, साहब?"

मेरे चेहरे और जूतों की रंगत को अनुभवी आँखों से एक-एक बार देखने के बाद उसने सवाल पूछा था, उसका अंदाज़ा सही था. मेरे जूतों को पॉलिश की ज़रूरत थी.

जूते की पालिश और शरीर की मालिश कुछ ऐसे काम हैं जो मेरे भीतर असमंजस पैदा करते हैं. हाथरिक्शे की सवारी, घरेलू नौकर की सेवाएँ वग़ैरह मेरे लिए जितनी सुविधा हैं, उतनी ही दुविधा भी.

वैसे सुविधा और दुविधा की इस लड़ाई में, सुविधा हमेशा जीतती रही है.

एक तरफ़ पूंजीवादी-सामंतवादी शोषण, तो दूसरी ओर रोज़गार का अवसर. पॉलिश कराना सामंतवादी तौर-तरीक़ों को चलाए रखना है या पॉलिश न कराना एक ग़रीब मज़दूर का बहिष्कार? मेरे लिए यह बहुत कठिन सवाल है जिसका पक्का जवाब मेरे पास नहीं है.

मैंने उसका नाम नहीं पूछा लेकिन कल्लू, बिल्लू, पप्पू जैसा कुछ रहा होगा. प्रियांश, अरुणाभ, श्रेयस जैसा तो नहीं ही रहा होगा, ऐसे नाम उन बच्चों के होते हैं जिनकी देखभाल करने वाले माँ-बाप होते हैं.

"पॉलिश, साहब?" उसके दोबारा पूछने पर मैंने हामी भर दी. सधे हुए हाथों से उसने दो मिनट में जूतों को चमका दिया. पीठ पर भारी बैग था इसलिए मैंने उससे फीते बाँधने को कहा. पहली बार उसने अनसुना कर दिया, जब मैंने दोबारा कहा तो बुरा-सा मुँह बनाकर फीतों से जूझने लगा.

उसने बहुत जुगत लगाकर फीतों को किसी तरह एक दूसरे में फँसा दिया, ठीक उसी तरह जैसे मेरा पाँच साल का बेटा करता है. वक़्त ने उसे जूते चमकाना सिखा दिया है मगर उसे जूते के फीते बाँधना सिखाने वाले पता नहीं कहाँ हैं.

शायद उसे 'उँगलियों का हुनर' सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला वरना वह जूते घिसने के जगह उसी स्टेशन पर जेब तराश रहा होता, वह स्कूल नहीं जाता यानी किसी नेक एनजीओ के दायरे से भी बाहर है.

जब मैं अपने बेटे को जूते को फीते बाँधना सिखाऊँगा तो उस लड़के का मटमैला चेहरा आँखों के सामने आएगा.

17 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

फीता बाँधने के अलावा आप बेटे को पालिश करना भी सिखायेंगे।
एक बड़े मीडिया संगठन के ब्लॉग-अस्तबल (blog stable ) से निकले ’घोड़े ’ का स्वागत । सप्रेम,

डॉ .अनुराग ने कहा…

बहुत दिन बाद आये .....खैर आमद भी एक सवाल के साथ है ....जो वाजिब है

अभय तिवारी ने कहा…

ये मार्मिकता इतने-इतने अन्तराल पर क्यों आ रही है?

अजित वडनेरकर ने कहा…

चेहरों में है आईना, कि आईने में चेहरा
न जाने मगर कौन किसे देख रहा है....

...तो सालाना जात्रा पर आप तशरीफ लाए हैं। कंधे पर बैग टांगे। स्वागत मेरे अज़ीज़...किस विध मिलना होय...

मसिजीवी ने कहा…

अभयजी का सवाल हमारा भी है।

PD ने कहा…

ओह! भारत यात्रा पर हैं.. क्या चेन्नई भी आना है? आ भी जाईये, आपसे मिलना हो सकेगा फिर, नहीं तो आपका पोल खोल दुनिया वालों को अनामदास का नाम बता दूंगा..(ही ही ही) Just Kiding..

अगर सच में इधर आना हो तो खबर कर दें.. :)

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

सवाल तो है..

और आपके बहाने मुखे भी एक बूट पालिश वाला वाकया याद हो आया. फिर कभी सुनाऊंगा.

Neelima ने कहा…

बहुत लंबे अंतराल के बाद आपने लिखा है ! पढकर अच्छा लगा !

बेनामी ने कहा…

aapka likhna kyun itnaa aniyamit hai? Anamdas ke wazood par kya aapki asli pehchan jyada havi hai? Asal ka toh pata nahin,par yahaan bahut baatein dil ke kareeb thi. Phir se likhna shuru kariye na.

बेनामी ने कहा…

ye haqeeqat hai ki hota hai asar baaton me
Ham bhi khul jaayenge feete ki tarah baaton men...

बेनामी ने कहा…

aap ke blogs kam kyun ho gaye hain ?
aap bahut achcha likhte hain !!! kripya likha karein :-)

ghughutibasuti ने कहा…

ऐसा ही द्वन्द मन में तब होता है जब कोई बच्चा रेलगाड़ी का फ़र्श किसी कमीज जैसे कपड़े से साफ़ कर रहा होता है। यह भी लगता है कि यदि पैसा दोगे तो और भी माता पिता और भी बच्चों को इस काम में लगाएँगे।
घुघूती बासूती

प्रदीप कांत ने कहा…

वैसे सुविधा और दुविधा की इस लड़ाई में, सुविधा हमेशा जीतती रही है.

शत प्रतिश्त सत्य।
यानि हमारी कमजोरी सत्य है .........

दीपक 'मशाल' ने कहा…

ab nai post kab lagayenge sir ji?
चर्चा मंच-२८८ पर आपकी पोस्ट शोभायमान है जी..
http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/blog-post_25.html

kapil ने कहा…

दिल को छु लेने वाली मार्मिक कथा है परन्तु जीवन में हम कई ऐसी प्राथमिकताएं बना लेते हैं की दिल में टीस उठने के बाद भी हम कुछ करते नहीं है :(

बेनामी ने कहा…

accha likha hai ekdum sateek. lolz :)

Akhileshwar Pandey ने कहा…

ऐसे कई अवसर हमारी जिन्दगी में आते रहते हैं जो हमें सोचने को विवश कर देते हैं.