समाज, संस्कृति, सरोकार, समझदारी...जैसे जितने शब्द हैं उनका विलोम है हमारा समायिक हिंदी सिनेमा. भडैंती, भेड़चाल और भौंडापन, तीन भकार हैं जो बॉलीवुड पर राज करते हैं.
डेढ़ महीने के अंतराल पर, अपनी पेशेवर-पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बावजूद बड़ी मुश्किल से कुछ लिखने बैठा हूँ (सुना है, अमिताभ बच्चन रोज़ लिखते हैं). दो साल से ब्लॉग लिख रहा हूँ लेकिन सिनेमा के बारे में कुछ नहीं लिखा, अगर लिखता भी तो शायद 'बॉलीवुड' के बारे में नहीं, जिसे मैं समझदार नागरिकों की बुद्धिमत्ता के घोर अपमान के तौर पर देखता हूँ, चंद अपवादों को छोड़कर.
'मंदबुद्धि बॉलीवुड' के चक्कर में अपनी नींद ख़राब न करने वाला आदमी रात के बारह बजे ब्लॉग इसलिए लिख रहा है क्योंकि उसने थोड़ी देर पहले गज़नी देखी है. ग़जनी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं है जिस पर रात की नींद हराम की जाए, हॉलीवुड इश्टाइल में बनाई गई हर बॉलीवुड फ़िल्म की तरह सारे झोल-झाल (हर पंद्रह मिनट पर याद्दाश्त भूलने की कोई बीमारी नहीं होती) ग़जनी में भी हैं, लेकिन आमिर ख़ान के बारे में कुछ कहने को 'दिल चाहता है'...
फ़िल्म का संजय सिंघानिया अपना आमिर है जिसके अभिनय में कोई खोट निकालने की गुंजाइश नहीं दिखती, लेकिन फ़िल्म तो मुरुगादॉस की है जिसकी समीक्षा करना मेरा मक़सद नहीं है. वैसे भी असली फ़िल्म तो ओलिवएरा की 'मोमेंटो' है जो 2002 में रिलीज़ हुई थी.
बहरहाल, जब हम इंटर से निकले ही थे, इश्क़ फ़रमाने को बेताब थे, तभी आमिर ख़ान कयामत बरपा गए. जवान तो हम पाँच साल पहले सनी देयोल की 'बेताब' देखकर हो गए थे लेकिन क्यूएसक्यूटी (दिल्ली-बॉम्बे वालों का दिया नाम, जिसकी ख़बर हमें छह साल बाद अपने कस्बे से दिल्ली आकर मिली) का सुरूर ही कुछ और था.
आमिर ने एंट्री ही ऐसी की थी कि मेरे जैसे बहुत सारे लोगों को लगा कि उसके पापा ठीक कहते हैं, वह बड़ा नाम करने वाला है. उसने सदाबहार बुढ़ापे में सफ़ेद पतलून-सफ़ेद जूते पहनकर पल-पल में साड़ियाँ बदलतीं जयाप्रदा के साथ नाचते जितेंद्र की 'हिम्मतवाला' टाइप फ़िल्में बनाने वाले सारे 'मद्रासी' प्रोड्यूसरों हिम्मत तोड़ दी थी.
ठिगना-चिकना चॉकलेटी जवान मुझे पहली फ़िल्म में पसंद आया था लेकिन आगे चलकर मेरी नज़र में वह तीन ख़ानों की लिस्ट में शामिल हो गया था, उसकी फ़िल्में आती रहीं कुछ देखीं, कई छूट गईं, जितनी देखीं उनमें लाख खामियाँ रही हों, अभियन कहीं उन्नीस नहीं था.
बॉलीवुड के मुझ जैसे कटु आलोचक को कहना पड़ेगा कि आमिर ख़ान की ख़ूबियों को भी इंडस्ट्री के सीमित संदर्भ में ही देखा जाए लेकिन उनका कायल न होना कठिन काम है. बॉलीवुड की बेवकूफ़ियों की वजह से पूर तरह उचाट हो चुका मेरा मन अपनी जगह था लेकिन उम्मीद कहीं बाक़ी रही कि कभी अपना सिनेमा भी चर्चा के लायक़ बन सकेगा.
जिसे अँगरेज़ी में आउटग्रो करना कहते हैं, मैं बाइस साल का होते-होते बॉलीवुड की नौटंकी से बाहर सिनेमा ढूँढने लगा. आमिर को मेरे आउटग्रोइंग माइंड ने दोबारा नोटिस किया 'अर्थ 1947' में. इस फ़िल्म में मैंने नोटिस किया कि मैं ही नहीं, अपने दायरे में घिरे आमिर भी बॉलीवुड को आउटग्रो कर रहे हैं. इसके बाद मैंने देखा कि आमिर ने किसी ऐसी फ़िल्म में काम नहीं किया जिसे बॉलीवुड के व्यापक बेहूदगी के विशाल दायरे में डालकर नोटिस लेने से इनकार कर दिया जाए.
'लगान' को छोड़कर ज्यादातर फ़िल्में ऐसी नहीं जिनकी भारत से बाहर कोई चर्चा हुई हो, लेकिन बॉलीवुड के हिसाब से 'दिल चाहता है' और 'मंगल पांडे' काफ़ी ऑरिजनल सिनेमा है. 'तारे ज़मीं पर' भारतीय सिनेमा के इतिहास की इक्का-दुक्का फ़िल्मों में है जो नए विषय को एक्सप्लोर करने के अलावा, एक मिनट के लिए भी व्यावसायिकता के दबाव में नहीं दिखती...अति-भावुकता भारतीय सिनेमा नहीं, भारतीय समाज की समस्या है, उसका क्या करें?
बॉलीवुड में कोई ऐसा व्यक्तित्व (सिर्फ़ अभिनेता नहीं, डायरेक्टर-प्रोड्यूसर भी) नहीं दिखता जिसकी तुलना आमिर ख़ान से की जाए. इसकी एक सबसे सादा वजह है कि बॉलीवुड जैसे भीड़ भरे बाज़ार में कोई अदाकार साल में सिर्फ़ एक बार दुकान लगाता हो, यही बड़ी बात है. 'हटके', 'औरों से अलग', एकदम 'यूनिक', 'टोटली न्यू'...जैसे मुहावरों को बेमानी बना चुके बॉलीवुड में आमिर का करियर ही इन मुहावरों पर टिका रहा है.
पाँच-छह साल से (गज़नी सहित) हर फ़िल्म में आमिर ने इसलिए काम किया है कि वो सिर्फ़ बेहतरीन फ़िल्मों से जुड़ना चाहते हैं, वह बेहतरीन कितनी बेहतरीन है, यह बहस की बात हो सकती है, लेकिन आमिर की बेहतर से बेहतरीन की तरफ़ बढ़ने की अदम्य इच्छा पर कोई बहस नहीं की जा सकती, आमिर आदर के पात्र दिखते हैं क्योंकि व्यवासायिकता का लेशमात्र उनके काम पर हावी नहीं दिखता.
मुझे नहीं पता कि लोग अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान को किसलिए याद करेंगे, लेकिन ये पता है कि आमिर ख़ान को बाज़ार के दबाव से परे जाकर कलात्मक संतुष्टि खोजने वाली एक अहम शख्सियत के रूप में याद किया जाएगा जिसने हर बार बॉलीवुड के तय मानकों से आगे जाकर कुछ करने की कोशिश की. वह कभी नंबर वन के ठप्पे के लिए बेताब नहीं हुआ, उसने कभी आने वाली सात पीढ़ियों के दौलत बटोरने की आपाधापी में हिस्सा नहीं लिया.
आमिर सचमुच बॉलीवुड के लिए साल दर साल मिसालें क़ायम कर रहे हैं. वे जिस फ़िल्म से जुड़े हों (बतौर अभिनेता, निर्देशक या निर्माता) उससे लोगों को ये उम्मीद ज़रूर होती है कि फ़िल्म में कुछ तो होगा देखने लायक़. आमिर बॉलीवुड में अकेले हैं जो किसी खाँचे में फिट नहीं होते, भेड़चाल वालों के लिए खाँचे तैयार करने के काम में लगे रहते हैं.
सही मायनों में लीडर हैं आमिर, आमिर का मतलब वैसे लीडर ही होता है.
12 जनवरी, 2009
16 नवंबर, 2008
सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला...
समझदार होना सहज है और कठिन भी, जैसी फ़ितरत वैसी समझदारी. मैं समझता हूँ कि समझदार हूँ, आप भी होंगे, किसी से ज्यादा, किसी से कम. समझदारी इसी में है कि नासमझी को भी समझा जाए.
'समझ समझ के जो न समझे वही नासमझ है...' को फ़िल्मी मानकर मामूली न समझिए. अपनी नासमझी को भी समझिए, उसी प्यार से, जैसे समझदार अपनी समझदारी को सहलाते हैं.
समझ इत्ती सी क्यों होती है कि उसमें फ़ायदे के अलावा किसी चीज़ की जगह नहीं, यह भेद कोई समझदार क्यों नहीं समझा पाता, यह बात मुझ नासमझ की समझ से परे नहीं है.
दुनिया को समझने में नाकाम रहने पर ख़ुदकुशी कर लेने वाले गोरख पांडे जो समझा गए हैं वह चकित करता है कि इतना समझते थे तो फिर जान क्यों दी? शायद इसलिए कि समझ लेना और समझदारी पर अमल करना कई बार बिल्कुल विपरीतार्थक हो सकता है, नहीं समझे?
दो साल में पहला मौक़ा है जब मैं किसी और के लिखे शब्द अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ, ब्लॉग शुरू ही किया था ख़ुद लिखने के लिए, ख़ुद को छापने के लिए मगर समझ, समझदारी, समझाने वाले, समझ का फेर, समझ के झगड़े, नासमझी... के बारे में बहुत सारी बातें लिखीं और मिटाईं, बहुत जूझने के बाद समझ में आया कि लिखने की ज़रूरत थी ही नहीं, यह काम बरसों पहले गोरख पांडे कर गए हैं.
समझदारों का गीत
-------------------------
कविः गोरख पांडे
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
पोस्ट का शीर्षक निदा फ़ाज़ली की अनुमति के बिना उधार लिया गया है, उनसे समझदारी की उम्मीद के साथ.
'समझ समझ के जो न समझे वही नासमझ है...' को फ़िल्मी मानकर मामूली न समझिए. अपनी नासमझी को भी समझिए, उसी प्यार से, जैसे समझदार अपनी समझदारी को सहलाते हैं.
समझ इत्ती सी क्यों होती है कि उसमें फ़ायदे के अलावा किसी चीज़ की जगह नहीं, यह भेद कोई समझदार क्यों नहीं समझा पाता, यह बात मुझ नासमझ की समझ से परे नहीं है.
दुनिया को समझने में नाकाम रहने पर ख़ुदकुशी कर लेने वाले गोरख पांडे जो समझा गए हैं वह चकित करता है कि इतना समझते थे तो फिर जान क्यों दी? शायद इसलिए कि समझ लेना और समझदारी पर अमल करना कई बार बिल्कुल विपरीतार्थक हो सकता है, नहीं समझे?
दो साल में पहला मौक़ा है जब मैं किसी और के लिखे शब्द अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ, ब्लॉग शुरू ही किया था ख़ुद लिखने के लिए, ख़ुद को छापने के लिए मगर समझ, समझदारी, समझाने वाले, समझ का फेर, समझ के झगड़े, नासमझी... के बारे में बहुत सारी बातें लिखीं और मिटाईं, बहुत जूझने के बाद समझ में आया कि लिखने की ज़रूरत थी ही नहीं, यह काम बरसों पहले गोरख पांडे कर गए हैं.
समझदारों का गीत
-------------------------
कविः गोरख पांडे
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं.
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं
बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं.
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं कि वह समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं क्योंकि वह भेड़ियाधसान होती है.
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं.
वैसे हम अपने को
किसी से कम नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद
और सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते
यह भी हम समझते हैं.
पोस्ट का शीर्षक निदा फ़ाज़ली की अनुमति के बिना उधार लिया गया है, उनसे समझदारी की उम्मीद के साथ.
10 नवंबर, 2008
दिल्ली में रात-दिन की ऑडियो डायरी
चौकीदार की लाठी की ठक-ठक और सीटी की गूँज. बेमतलब की वफ़ादारी निभाते आवारा कुत्तों का कोरस. चर्र चूँ...ऊपर की मंज़िल पर खुला या बंद हुआ दरवाज़ा. बहुत रात हो गई अब सो जाना चाहिए.
गाड़ी रुकी है मेन गेट पर, कोई कॉल सेंटर वाला आ या जा रहा होगा. पीएसपीओ वाला पंखा घूमता है किर्र-किर्र की आवाज़ के साथ, टॉयलेट में पानी टपकता है...टिप टुप, टिप टुप...फेंगशुई वाले कहते हैं कि पानी टपकना शुभ नहीं होता.
'यार कमाल हो गया, पांडे भी साला ग़ज़ब आदमी है...' रात के डेढ़ बजे भी पांडे जी की चिंता, पता नहीं किसे सता रही है. बोलने वाला चल रहा था इसलिए आवाज़ भी चली गई. 'चटाक', लगता है गुडनाइट ठीक से काम नहीं कर रहा है.
उफ़, अक्तूबर में इतनी गर्मी, क्लाइमेट चेंज नहीं तो और क्या है. गरदन पर चमड़ी की सिलवटों में जमा होता पसीना. जेनरेटर की भट-भट-भड़-भड़ के तीस सेंकेड बाद पंखे की किर्र-किर्र सुहाने लगी. पावरबैकअप कितना ज़रूरी है.
'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन'...किस चैनल पर आ रहा होगा ये गाना इस वक़्त, कोई कैसेट घूम रहा होगा या रेडियो बज रहा है. ये गाना कौन, कहाँ, कैसे और क्यों बजा रहा होगा. सोना चाहिए, वर्ना बीता हुआ दिन कोई नहीं लौटाएगा और आने वाला दिन ख़राब हो जाएगा.
सुबह
शूँशूँशूँशूँशूँशूँ...बगल वाले फ्लैट का कुकर बोला. शर्मा जी के यहाँ शायद या फिर जसबीर सिंह के घर, हद् है, रात को खाना पकाकर फ्रिज में नहीं रख सकते? कुछ और सो लूँ नहीं तो दिन भर ऊँघता रहूँगा. यही तो सोने का टाइम है और लोग हैं कि...
'मम्मी, मिन्नी मेरी बुक नहीं दे रही है,' 'चलो-चलो, बस मिस करनी है क्या', 'मैम को बता देना'...'ओह हो, मम्मी आप भी हद करते हो'... हमारे स्कूल जाने या न जाने पर कभी इतना हंगामा नहीं हुआ.
'मंगल भवन अमंगल हारीईईईई'... पता नहीं, लाउडस्पीकर बजाने पर लगी क़ानूनी रोक रात से लेकर सुबह कितने बजे तक है. नाइट ड्यूटी करने वाले तो सिर्फ़ इस बाजे की वजह से नास्तिक हो जाएँगे. ख़ैर, अपार्टमेंट से दूर है मंदिर, लेकिन इतना ज़ोर से बजाने की क्या ज़रूरत है.
'ढम्म'. लगता है, अख़बार की लैंडिंग हुई है बालकनी में. थोड़ी देर में देखता हूँ, ज़रा एक और झपकी मार लूँ. ऐसा क्या होगा अख़बारों में, रात को टीवी की ख़बरें और वेबसाइट देखकर सोया हूँ.
'टिंग टू'...'अरे, दूध का बर्तन धुला नहीं है क्या, दूधवाला आया होगा.' 'ढांग, ठन्न, टनननन...' 'भइया, आपको बोला था न कि मंडे से एक्स्ट्रा चाहिए...' 'ठीक है कल से ले आएँगे...' मदर डेयरी है, अमूल ताज़ा है, नानक डेयरी है, सुबह-सुबह तंग करने वालों से दूध लेना पता नहीं क्यों जरूरी है.
'घर्र,घर्र,घर्र,तड़,तड़,तड़,घर्र,घर्र,घर्र..घूँsss...', स्कूटर को तिरछा करके स्टार्ट करने वाले भी हैं इस अपार्टमेंट में, चारों तरफ़ तो सिर्फ़ कारें नज़र आती हैं, शायद ट्रैफ़िक जाम से बचने के लिए. मैं तो फसूँगा ही जाम में ख़ैर...
'डिंग,डां डिंग डू, डैंग डैंग,' मेरा अपना ही अलार्म है अब तो. साढ़े आठ बज गए, उठना ही पड़ेगा. अलार्म सुनकर किसी और की नींद खुलने के आसार नहीं हैं, सब पहले से उठे हुए हैं.
ये आवाज़ें बहुत याद आ रही हैं, चारों ओर सन्नाटा है. महीने भर की छुट्टी के बाद लंदन आ गया हूँ.
गाड़ी रुकी है मेन गेट पर, कोई कॉल सेंटर वाला आ या जा रहा होगा. पीएसपीओ वाला पंखा घूमता है किर्र-किर्र की आवाज़ के साथ, टॉयलेट में पानी टपकता है...टिप टुप, टिप टुप...फेंगशुई वाले कहते हैं कि पानी टपकना शुभ नहीं होता.
'यार कमाल हो गया, पांडे भी साला ग़ज़ब आदमी है...' रात के डेढ़ बजे भी पांडे जी की चिंता, पता नहीं किसे सता रही है. बोलने वाला चल रहा था इसलिए आवाज़ भी चली गई. 'चटाक', लगता है गुडनाइट ठीक से काम नहीं कर रहा है.
उफ़, अक्तूबर में इतनी गर्मी, क्लाइमेट चेंज नहीं तो और क्या है. गरदन पर चमड़ी की सिलवटों में जमा होता पसीना. जेनरेटर की भट-भट-भड़-भड़ के तीस सेंकेड बाद पंखे की किर्र-किर्र सुहाने लगी. पावरबैकअप कितना ज़रूरी है.
'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन'...किस चैनल पर आ रहा होगा ये गाना इस वक़्त, कोई कैसेट घूम रहा होगा या रेडियो बज रहा है. ये गाना कौन, कहाँ, कैसे और क्यों बजा रहा होगा. सोना चाहिए, वर्ना बीता हुआ दिन कोई नहीं लौटाएगा और आने वाला दिन ख़राब हो जाएगा.
सुबह
शूँशूँशूँशूँशूँशूँ...बगल वाले फ्लैट का कुकर बोला. शर्मा जी के यहाँ शायद या फिर जसबीर सिंह के घर, हद् है, रात को खाना पकाकर फ्रिज में नहीं रख सकते? कुछ और सो लूँ नहीं तो दिन भर ऊँघता रहूँगा. यही तो सोने का टाइम है और लोग हैं कि...
'मम्मी, मिन्नी मेरी बुक नहीं दे रही है,' 'चलो-चलो, बस मिस करनी है क्या', 'मैम को बता देना'...'ओह हो, मम्मी आप भी हद करते हो'... हमारे स्कूल जाने या न जाने पर कभी इतना हंगामा नहीं हुआ.
'मंगल भवन अमंगल हारीईईईई'... पता नहीं, लाउडस्पीकर बजाने पर लगी क़ानूनी रोक रात से लेकर सुबह कितने बजे तक है. नाइट ड्यूटी करने वाले तो सिर्फ़ इस बाजे की वजह से नास्तिक हो जाएँगे. ख़ैर, अपार्टमेंट से दूर है मंदिर, लेकिन इतना ज़ोर से बजाने की क्या ज़रूरत है.
'ढम्म'. लगता है, अख़बार की लैंडिंग हुई है बालकनी में. थोड़ी देर में देखता हूँ, ज़रा एक और झपकी मार लूँ. ऐसा क्या होगा अख़बारों में, रात को टीवी की ख़बरें और वेबसाइट देखकर सोया हूँ.
'टिंग टू'...'अरे, दूध का बर्तन धुला नहीं है क्या, दूधवाला आया होगा.' 'ढांग, ठन्न, टनननन...' 'भइया, आपको बोला था न कि मंडे से एक्स्ट्रा चाहिए...' 'ठीक है कल से ले आएँगे...' मदर डेयरी है, अमूल ताज़ा है, नानक डेयरी है, सुबह-सुबह तंग करने वालों से दूध लेना पता नहीं क्यों जरूरी है.
'घर्र,घर्र,घर्र,तड़,तड़,तड़,घर्र,घर्र,घर्र..घूँsss...', स्कूटर को तिरछा करके स्टार्ट करने वाले भी हैं इस अपार्टमेंट में, चारों तरफ़ तो सिर्फ़ कारें नज़र आती हैं, शायद ट्रैफ़िक जाम से बचने के लिए. मैं तो फसूँगा ही जाम में ख़ैर...
'डिंग,डां डिंग डू, डैंग डैंग,' मेरा अपना ही अलार्म है अब तो. साढ़े आठ बज गए, उठना ही पड़ेगा. अलार्म सुनकर किसी और की नींद खुलने के आसार नहीं हैं, सब पहले से उठे हुए हैं.
ये आवाज़ें बहुत याद आ रही हैं, चारों ओर सन्नाटा है. महीने भर की छुट्टी के बाद लंदन आ गया हूँ.
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26 सितंबर, 2008
सतरंगे देश को ब्लैक एंड व्हाइट मत बनाइए
अनगिनत रंगो-बू का देश, अनेकता में एकता का देश, रंग-बिरंगे फूलों का गुलदस्ता, इंद्रधनुष की छटा बिखेरना वाला भारत अचानक ब्लैक एंड व्हाइट हो गया है.
तुलसी, सूर, तानसेन, कबीर, रसखान, खुसरो के देश में सिर्फ़ दो छंद, दो सुर, दो ही बातें...या तो ऐसा या फिर वैसा.
शिवरंजनी और मियाँ की मल्हार एक साथ नहीं सुने जा सकते, या तो इसकी बात कर लें या फिर उसकी.
डागर बंधुओं का ध्रुपद, हबीब पेंटर का 'कन्हैया का बालपन' और शंकर-शंभू का 'मन कुंतो मौला'...इन सबके लिए कोई जगह नहीं दिख रही है.
भारत को भारत बनाए रखने के लिए एक संघर्ष की ज़रूरत दिखने लगी है, भारत का अमरीका, ईरान या इसराइल होना कितना आसान हो गया है.
इस समय भारत दो ध्रुवों पर बसा दिख रहा है, आर्कटिक और अंटार्टिक की बर्फ़ पर जा पहुँचे लोगों से अनुरोध है कि वे छह ऋतुओं वाले देश में लौट आएँ. हेमंत, शरद, पावस...सबका आनंद लें.
भारत के अनूठेपन पर ही तो नाज़ है वरना लाख आईटी और नाइन परसेंट ग्रोथ की बात कर लें, असल में आप भी जानते हैकि ग़रीबी की कोढ़ में भ्रष्टाचार की खाज से ज्यादा अगर कुछ है तो बस पैंतीस करोड़ उपभोक्ता.
यह अनूठापन किसी एक रंग, किसी एक रूप, किसी एक रास्ते चलकर नहीं पाया जा सकता, जब सब साथ आते हैं तो पूरी दुनिया उसे मैजिकल इंडिया कहती है.
इस मैजिकल इंडिया में लाल क़िला है, जैन लाल मंदिर है, चिड़ियों का अस्पताल है, सीसगंज गुरुद्वारा है, घंटेवाला का सोहन हलवा है, क़रीम के कबाब हैं, चंदगीराम का अखाड़ा है, सुलेमान मालिशवाला है, वैद्यजी भी हैं और चाँदसी-यूनानी हक़ीम भी हैं, सबके लिए जगह है, दाँत के चीनी डॉक्टर के लिए भी...
दिल्ली, अहमदाबाद में और पहले भी कई शहरों में बम फटे हैं, इन बमों ने कई जानें ली हैं मगर पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के परखच्चे उड़ाने की ताक़त इन बमों में नहीं है.
डर लग रहा है. बम इस-उस चौराहे पर फटे थे, उन्हें रेडक्लिफ़ लाइन मत बनाइए.
जिन लोगों ने बम फोड़ा होगा उन्होंने ऐसी सफलता की कल्पना कभी न की होगी, उन्हें सफल बनाने के लिए आपने तो कुछ नहीं किया है न?
तुलसी, सूर, तानसेन, कबीर, रसखान, खुसरो के देश में सिर्फ़ दो छंद, दो सुर, दो ही बातें...या तो ऐसा या फिर वैसा.
शिवरंजनी और मियाँ की मल्हार एक साथ नहीं सुने जा सकते, या तो इसकी बात कर लें या फिर उसकी.
डागर बंधुओं का ध्रुपद, हबीब पेंटर का 'कन्हैया का बालपन' और शंकर-शंभू का 'मन कुंतो मौला'...इन सबके लिए कोई जगह नहीं दिख रही है.
भारत को भारत बनाए रखने के लिए एक संघर्ष की ज़रूरत दिखने लगी है, भारत का अमरीका, ईरान या इसराइल होना कितना आसान हो गया है.
इस समय भारत दो ध्रुवों पर बसा दिख रहा है, आर्कटिक और अंटार्टिक की बर्फ़ पर जा पहुँचे लोगों से अनुरोध है कि वे छह ऋतुओं वाले देश में लौट आएँ. हेमंत, शरद, पावस...सबका आनंद लें.
भारत के अनूठेपन पर ही तो नाज़ है वरना लाख आईटी और नाइन परसेंट ग्रोथ की बात कर लें, असल में आप भी जानते हैकि ग़रीबी की कोढ़ में भ्रष्टाचार की खाज से ज्यादा अगर कुछ है तो बस पैंतीस करोड़ उपभोक्ता.
यह अनूठापन किसी एक रंग, किसी एक रूप, किसी एक रास्ते चलकर नहीं पाया जा सकता, जब सब साथ आते हैं तो पूरी दुनिया उसे मैजिकल इंडिया कहती है.
इस मैजिकल इंडिया में लाल क़िला है, जैन लाल मंदिर है, चिड़ियों का अस्पताल है, सीसगंज गुरुद्वारा है, घंटेवाला का सोहन हलवा है, क़रीम के कबाब हैं, चंदगीराम का अखाड़ा है, सुलेमान मालिशवाला है, वैद्यजी भी हैं और चाँदसी-यूनानी हक़ीम भी हैं, सबके लिए जगह है, दाँत के चीनी डॉक्टर के लिए भी...
दिल्ली, अहमदाबाद में और पहले भी कई शहरों में बम फटे हैं, इन बमों ने कई जानें ली हैं मगर पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता के परखच्चे उड़ाने की ताक़त इन बमों में नहीं है.
डर लग रहा है. बम इस-उस चौराहे पर फटे थे, उन्हें रेडक्लिफ़ लाइन मत बनाइए.
जिन लोगों ने बम फोड़ा होगा उन्होंने ऐसी सफलता की कल्पना कभी न की होगी, उन्हें सफल बनाने के लिए आपने तो कुछ नहीं किया है न?
15 सितंबर, 2008
गाय खाने वाले हिंदू, सूअर खाने वाले मुसलमान
ब्रैंडिंग बी स्कूलों की उपज नहीं है, सबसे पहले आदमी की ही ब्रैंडिंग हुई. वह हिंदू बना, मुसलमान बना, ईसाई बना, यहूदी बना...फिर सब-ब्रांडिंग हुई, शिया-सुन्नी, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट...
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
धर्म के नियमों का पालन करना ज़रूरी नहीं, पहला धर्म यही कि आदमी जल्द से जल्द किसी न किसी खाँचे में फिट हो जाए ताकि कम सोचने वालों को अधिक असुविधा न हो.
हम सब उस दुकानदार की तरह हैं जो सिर्फ़ ब्रैंड जानता है. वह साबुन माँगने पर साबुन नहीं दे सकता, उसे निरमा, सनलाइट, उजाला या रिन जैसा कुछ सुनना होता है तभी उसका हाथ अपने-आप एक ख़ास शेल्फ़ की तरफ़ जाता है.
"आप कौन हैं?"
"मैं आदमी हूँ."
इस तरह का संवाद कई सदियों से संभव नहीं है क्योंकि आदमी अपनी ब्रैंडिग 'महापरिनिर्वाण' से काफ़ी पहले कर चुका था.
जिसकी ब्रैंडिग होश संभालने के सदियों पहले हो चुकी हो वह भला कैसे समझ सकता है कि इस दुनिया के पाँच अरब लोगों को 12 राशियों में बाँटकर जितनी सही भविष्यवाणी की जा सकती है, उतने ही सटीक तरीके से दूसरे ब्रैंड के लोगों को समझा जा सकता है.
गोमांस का ज़ायका कोई हिंदू नहीं बता सकता, क्रिस्पी बेकन की लज्ज़त मुसलमान को क्या पता, सरदारों को विल्स नेवीकट की क्या कद्र...ऐसे जेनरलाइजेशन अक्सर ग़लत साबित होते हैं लेकिन फ़ितरतन हम बाज़ नहीं आते.
लाइब्रेरी, कैटलॉग, सुपरस्टोर...हर जगह चीज़ें इसी तरह रखी होती हैं कि जो आदमी के खाँचेदार दिमाग़ में फौरन अँट जाए.
हमारे लिए कितना श्रमसाध्य है खाँचे से बाहर देखना, मैनेजमेंट गुरू की ज़रूरत होती है हमें बताने के लिए--थिंक आउट ऑफ़ बॉक्स.
सबसे आसान है यह मान लेना कि--गाँव में रहने वालों को कुछ पता नहीं होता, सभी सिंधी व्यापारी होते हैं, हरेक बंगाली मछली खाता है, महाराष्ट्र के नीचे रहने वाले सभी मद्रासी हैं...
आदमी के ऊपर पता नहीं कितनी चीज़ें सवार हैं--उसकी जाति, क्षेत्र, धर्म, हैसियत लेकिन वह बार-बार अपनी ब्रैंडिंग को ग़लत साबित करता रहता है, नई सबब्रैंडिग बनाता रहता है...उसे भी झुठलाता रहता है. कभी सैकड़ों की तादाद में आईएएस बनकर बिहारियों के पिछड़े होने की ब्रैंडिंग को, कभी बंगलौर में सबसे अधिक पब खोलकर दक्षिण भारतीयों के परंपरागत होने की ब्रैंडिंग को.
दिल्ली के कोई जैन साहब घनघोर माँसाहारी बन जाते हैं, सीरिया के कोई अबू हलीम घोर शाकाहारी हैं जो दूध-शहद से भी परहेज़ करते हैं... मगर हज़ारों-लाखों अपवादों के बावजूद एक-दूसरे को खाँचे में डालना ही नियम है, क्योंकि सबसे प्रभावी नियम, सुविधा का नियम होता है.
एक लाठी से समूची रेवड़ को हाँकना, एक कूची से सबको रंगना, एक सुर में सबको कोसना, एक गाली में पूरी जमात को लपेटना, एक सोच में पूरे देश को समेटना, एक कलंक पूरे मज़हब पर लगाना... आसान होता है, सही नहीं.
ख़ास तौर पर तब, जब हर तरफ़ बम फट रहे हों.
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26 अगस्त, 2008
सावन सुहाना, भादो भद्दा, आख़िर क्यों?
सावन चला गया. पूरे महीने 'बरसन लागी सावन बूंदियाँ' से लेकर 'बदरा घिरे घिरे आए सवनवा में' जैसे बीसियों गीत मन में गूंजते रहे.
राखी के अगले दिन से भादो आ गया है, भादो भी बारिश का मौसम है लेकिन ऐसा कोई गीत याद नहीं आ रहा जिसमें भादो हो.
भादो के साथ भेदभाव क्यों?
क्या इसलिए कि भादो की बूंदें रिमझिम करके नहीं, भद भद करके बरसती हैं? या इसलिए कि वह सावन जैसा सुहाना नहीं बल्कि भादो जैसा भद्दा सुनाई देता है? या फिर इसलिए कि भादो का तुक कादो से मिलता है?
भादो के किसी गीत को याद करने की कोशिश में सिर्फ़ एक देहाती दोहा याद आया, जो गली से गुज़रते हाथी को छेड़ने के लिए हम बचपन में गाते थे- 'आम के लकड़ी कादो में, हथिया पादे भादो में.'
हाथी अपनी नैसर्गिक शारीरिक क्रिया का निष्-पादन सावन के सुहाने मौसम में रोके रखता था या नहीं, कोई जानकार महावत ही ऐसी गोपनीय बात बता सकता है. सावन में मोर के नाचने, दादुर-पपीहा के गाने के आख्यान तो मिलते हैं, हाथी या किसी दूसरे जंतु के घोर अनरोमांटिक काम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता.
हाथी को भी भादो ही मिला था.
सावन जैसे मौसमों का सवर्ण और भादो दलित है.
बारिश के दो महीनों में से एक इतना रूमानी और दूसरा इतना गलीज़ कैसे हो गया?
जेठ-बैसाख की गर्मी से उकताए लोग आषाढ़-सावन तक शायद अघा जाते हैं फिर उन्हें भादो कैसे भाए?
भादो मुझे बहुत पसंद है क्योंकि उसकी बूंदे बड़ी-बड़ी होती हैं, उसकी बारिश बोर नहीं करती, एक पल बरसी, अगले पल छँटी, अक्सर ऐसी जादुई बारिश दिखती है जो सड़क के इस तरफ़ हो रही होती है, दूसरी तरफ़ नहीं.
कभी भादो में हमारे आंगन के अमरूद पकते थे, रात भर कुएँ में टपकते थे. किसी ताल की तरह, बारिश की टिप-टिप के बीच सम पर कुएँ में गिरा अमरूद. टिप टिप टिप टिप टुप टुप टुप...गुड़ुप.
सावन की बारिश कई दिनों तक लगातार फिस्स-फिस्स करके बरसती है. न भादो की तरह जल्दी से बंद होने वाली, न आषाढ़ की तरह तुरंत प्यास बुझाने वाली.
मगर मेरी बात कौन मानेगा, मेरा मुक़ाबला भारत के कई सौ साल के अनेक महाकवियों से है. भादो को सावन पर भारी करने का कोई उपाय हो तो बताइए.
राखी के अगले दिन से भादो आ गया है, भादो भी बारिश का मौसम है लेकिन ऐसा कोई गीत याद नहीं आ रहा जिसमें भादो हो.
भादो के साथ भेदभाव क्यों?
क्या इसलिए कि भादो की बूंदें रिमझिम करके नहीं, भद भद करके बरसती हैं? या इसलिए कि वह सावन जैसा सुहाना नहीं बल्कि भादो जैसा भद्दा सुनाई देता है? या फिर इसलिए कि भादो का तुक कादो से मिलता है?
भादो के किसी गीत को याद करने की कोशिश में सिर्फ़ एक देहाती दोहा याद आया, जो गली से गुज़रते हाथी को छेड़ने के लिए हम बचपन में गाते थे- 'आम के लकड़ी कादो में, हथिया पादे भादो में.'
हाथी अपनी नैसर्गिक शारीरिक क्रिया का निष्-पादन सावन के सुहाने मौसम में रोके रखता था या नहीं, कोई जानकार महावत ही ऐसी गोपनीय बात बता सकता है. सावन में मोर के नाचने, दादुर-पपीहा के गाने के आख्यान तो मिलते हैं, हाथी या किसी दूसरे जंतु के घोर अनरोमांटिक काम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता.
हाथी को भी भादो ही मिला था.
सावन जैसे मौसमों का सवर्ण और भादो दलित है.
बारिश के दो महीनों में से एक इतना रूमानी और दूसरा इतना गलीज़ कैसे हो गया?
जेठ-बैसाख की गर्मी से उकताए लोग आषाढ़-सावन तक शायद अघा जाते हैं फिर उन्हें भादो कैसे भाए?
भादो मुझे बहुत पसंद है क्योंकि उसकी बूंदे बड़ी-बड़ी होती हैं, उसकी बारिश बोर नहीं करती, एक पल बरसी, अगले पल छँटी, अक्सर ऐसी जादुई बारिश दिखती है जो सड़क के इस तरफ़ हो रही होती है, दूसरी तरफ़ नहीं.
कभी भादो में हमारे आंगन के अमरूद पकते थे, रात भर कुएँ में टपकते थे. किसी ताल की तरह, बारिश की टिप-टिप के बीच सम पर कुएँ में गिरा अमरूद. टिप टिप टिप टिप टुप टुप टुप...गुड़ुप.
सावन की बारिश कई दिनों तक लगातार फिस्स-फिस्स करके बरसती है. न भादो की तरह जल्दी से बंद होने वाली, न आषाढ़ की तरह तुरंत प्यास बुझाने वाली.
मगर मेरी बात कौन मानेगा, मेरा मुक़ाबला भारत के कई सौ साल के अनेक महाकवियों से है. भादो को सावन पर भारी करने का कोई उपाय हो तो बताइए.
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08 अगस्त, 2008
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ मन के कोनों में दबी हुईं
एक डरावना सपना देखा. चारों तरफ़ कचरा है, कचरे के अंबार से घिरा हूँ, कचरे में धंसा जा रहा हूँ, छटपटा रहा हूँ, कचरा लपककर अपने आगोश में लेना चाहता है. किसी एनिमेशन फ़िल्म की तरह.
सपने अक्सर याद नहीं रहते लेकिन कचरे को छोड़कर पूरे दिन कुछ नहीं सूझा, कचरा मेरे लिए वैसे ही बन गया जैसा पीठ पर बोरी लादे किसी बदनसीब बच्चे के लिए होता है.
कचरा, कचरा, कचरा, चारों तरफ़ कचरा ही दिखने लगा.
दफ़्तर में कीबोर्ड पलटा तो असमंजस में सिर खुजाने से गिरे ढेर सारे बाल, हड़बड़ी में खाए सैंडविच के चूरे और बेख़याली में चाय की प्याली से छिटककर गिरे चीनी के कितने ही दाने निकल आए.
दराज़ खोली तो उसमें सब कुछ था जो सहेजने लायक़ समझकर रखा गया था लेकिन अब कचरा दिख रहा था. मेज़ के नीचे, टेबल पर जमा कागज़ के अंबार में, इनबॉक्स में, ऑडियो, वीडियो और न जाने किन-किन शक्लों में.
2004 की टैक्सी की रसीद जिसके ड्राइवर के रवैये के बारे में शिकायत करनी थी लेकिन टाइम नहीं मिला, 2001 में ख़रीदे गए मोबाइल फ़ोन का यूज़र मैनुअल, सबसे सस्ते आइपॉड के विज्ञापन पर लाल कलम से गोला बनाकर रखा गया प्रिंट आउट, 2003 का भारतीय दूतावास का गणतंत्र दिवस का निमंत्रण पत्र, दिमाग़ से मिट चुके किसी ताले की पीली पड़ी चाबी, 2002 में वेस्टर्न यूनियन से भारत भेजे गए पाउंड स्टर्लिंग की रसीद....हुँह, तब पाउंड का रेट क्या था, एक सेकेंड का अंतराल, एक गहरी साँस और सब कुछ कूड़े की पेटी में.
वॉलेट में ढेर सारे आलतू-फ़ालतू लोगों के विजटिंग कार्ड, कई एक्सपायर हो चुके क्रेडिट और डेबिट कार्ड, एक फ़ोन नंबर जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा है, मन हुआ डायल करके पूछूँ- "आप कौन हैं?" फिर लगा जवाब कुछ ऐसा ही मिलेगा, "अरे भाई साहब कैसे याद किया, नहीं पहचाना? मैं कचरा बोल रहा हूँ." डर गया, इरादा छोड़ दिया.
घर में टोस्टर जल गया, कब का फेंका जा चुका लेकिन उसका डिब्बा पड़ा है, फ्रिज के पीछे अब बड़े हो चुके बच्चे के कितने छोटे-छोटे खिलौने गिरे हुए हैं, अलमारी की फाँक में झाँककर देखा, ब्लेयर के प्रधानमंत्री पद छोड़ने के दिन का डेली टेलीग्राफ़, महीनों से गुम हुई कंधी, कब लुढ़कर गया तांबे का सिक्का, ठोकर खाकर छिपी हुई चप्पल...मैंने घबराकर कोने-अँतरों में देखना बंद कर दिया. बतर्ज़ ग़ालिब- ख़ुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा...कहीं याँ भी वही कचरा निकले.
ग़ुस्से में की गई एक फ़िज़ूल हरकत का मलाल, किसी बड़ी ज़रूरत के बिना एक घटिया आदमी से की गई मिन्नत का अफ़सोस, कुछ न कर पाने का दुख, कुछ अनचाहा कर डालने का पछतावा, किसी से मिला छोटा सा छलावा, किसी को दिया एक बड़ा भुलावा, कुछ न कर सकने की खीस, कर सकने के बावजूद न करने की टीस...इन सब बातों की मुड़ी-तुड़ी रसीदें और पर्चियाँ मन के फाँकों-कोनों में दबी हैं. उन्हें किस कूड़ेदान में डाल दूँ.
मैंने अपने आकार और औक़ात से कहीं अधिक कचरा पैदा किया है, मेरा पूरा अस्तित्व मेरे अपने कचरे के सामने बिल्कुल बौना दिखता है.
आइ एम मच स्मॉलर देन माइ ओन रबिश.
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
मुझे जैसा सपना आया था, आपको क्यों नहीं आता? क्या आपने अपने दफ़्तर, घर और मन के सारे कचरे फेंक दिए हैं? अगर हाँ, तो किस कूड़ेदान में?
सपने अक्सर याद नहीं रहते लेकिन कचरे को छोड़कर पूरे दिन कुछ नहीं सूझा, कचरा मेरे लिए वैसे ही बन गया जैसा पीठ पर बोरी लादे किसी बदनसीब बच्चे के लिए होता है.
कचरा, कचरा, कचरा, चारों तरफ़ कचरा ही दिखने लगा.
दफ़्तर में कीबोर्ड पलटा तो असमंजस में सिर खुजाने से गिरे ढेर सारे बाल, हड़बड़ी में खाए सैंडविच के चूरे और बेख़याली में चाय की प्याली से छिटककर गिरे चीनी के कितने ही दाने निकल आए.
दराज़ खोली तो उसमें सब कुछ था जो सहेजने लायक़ समझकर रखा गया था लेकिन अब कचरा दिख रहा था. मेज़ के नीचे, टेबल पर जमा कागज़ के अंबार में, इनबॉक्स में, ऑडियो, वीडियो और न जाने किन-किन शक्लों में.
2004 की टैक्सी की रसीद जिसके ड्राइवर के रवैये के बारे में शिकायत करनी थी लेकिन टाइम नहीं मिला, 2001 में ख़रीदे गए मोबाइल फ़ोन का यूज़र मैनुअल, सबसे सस्ते आइपॉड के विज्ञापन पर लाल कलम से गोला बनाकर रखा गया प्रिंट आउट, 2003 का भारतीय दूतावास का गणतंत्र दिवस का निमंत्रण पत्र, दिमाग़ से मिट चुके किसी ताले की पीली पड़ी चाबी, 2002 में वेस्टर्न यूनियन से भारत भेजे गए पाउंड स्टर्लिंग की रसीद....हुँह, तब पाउंड का रेट क्या था, एक सेकेंड का अंतराल, एक गहरी साँस और सब कुछ कूड़े की पेटी में.
वॉलेट में ढेर सारे आलतू-फ़ालतू लोगों के विजटिंग कार्ड, कई एक्सपायर हो चुके क्रेडिट और डेबिट कार्ड, एक फ़ोन नंबर जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा है, मन हुआ डायल करके पूछूँ- "आप कौन हैं?" फिर लगा जवाब कुछ ऐसा ही मिलेगा, "अरे भाई साहब कैसे याद किया, नहीं पहचाना? मैं कचरा बोल रहा हूँ." डर गया, इरादा छोड़ दिया.
घर में टोस्टर जल गया, कब का फेंका जा चुका लेकिन उसका डिब्बा पड़ा है, फ्रिज के पीछे अब बड़े हो चुके बच्चे के कितने छोटे-छोटे खिलौने गिरे हुए हैं, अलमारी की फाँक में झाँककर देखा, ब्लेयर के प्रधानमंत्री पद छोड़ने के दिन का डेली टेलीग्राफ़, महीनों से गुम हुई कंधी, कब लुढ़कर गया तांबे का सिक्का, ठोकर खाकर छिपी हुई चप्पल...मैंने घबराकर कोने-अँतरों में देखना बंद कर दिया. बतर्ज़ ग़ालिब- ख़ुदा के वास्ते परदा न काबे से उठा...कहीं याँ भी वही कचरा निकले.
ग़ुस्से में की गई एक फ़िज़ूल हरकत का मलाल, किसी बड़ी ज़रूरत के बिना एक घटिया आदमी से की गई मिन्नत का अफ़सोस, कुछ न कर पाने का दुख, कुछ अनचाहा कर डालने का पछतावा, किसी से मिला छोटा सा छलावा, किसी को दिया एक बड़ा भुलावा, कुछ न कर सकने की खीस, कर सकने के बावजूद न करने की टीस...इन सब बातों की मुड़ी-तुड़ी रसीदें और पर्चियाँ मन के फाँकों-कोनों में दबी हैं. उन्हें किस कूड़ेदान में डाल दूँ.
मैंने अपने आकार और औक़ात से कहीं अधिक कचरा पैदा किया है, मेरा पूरा अस्तित्व मेरे अपने कचरे के सामने बिल्कुल बौना दिखता है.
आइ एम मच स्मॉलर देन माइ ओन रबिश.
लेकिन कितने लोग हैं जो मुझसे अलग हैं जिनके घर और मन में वही सब है जो सहेजने के लायक़ है.
मुझे जैसा सपना आया था, आपको क्यों नहीं आता? क्या आपने अपने दफ़्तर, घर और मन के सारे कचरे फेंक दिए हैं? अगर हाँ, तो किस कूड़ेदान में?
21 जुलाई, 2008
निम्न मध्यवर्गीय चौमासे का एक अध्याय
टिप टिप.. टुप टुप...बारिश के दिन कितने सुहाने होते हैं, तवे की तरह तपती ज़मीन के लिए. देश में कितनी छतें टपकती हैं इसके पुख़्ता आंकड़े कहीं उपलब्ध होंगे, ऐसा लगता तो नहीं है. इस बीच कोई राष्ट्रीय टपकन निदेशालय बन गया हो और मुझे पता न हो तो माफ़ी चाहता हूँ.
आंकड़ों का जाल और भी उलझ सकता है क्योंकि छतों से पानी टपकता है, और छप्परों से भी, हमारे घर में दोनों थे और दोनों टपकते थे. कहीं-कहीं दोनों नहीं टपकते थे, और कहीं कहीं दोनों में से कोई नहीं था.
आया सावन झूम के, काली घटा छाई प्रेम रुत आई ...मेरा लाखों का सावन जाए...जैसे गाने सुनकर बड़े होने के बावजूद मेरी समझ में कभी नहीं आया कि घुटनों तक कीचड़, लबालब बहती काली नाली में उतराते टमाटर, साइकिल के सड़े टायर, प्लास्टिक की गुड़िया, छतरी का डंडा और टूटी चप्पल को देखकर हमारा मन गिजगिजा-सा होता था, सलोनी नायिका क्या देखकर झूमने लगती थी.
अधसूखे कपड़ों की गंध, साइकिल के टायर की रिम पर लगी जंग, दीवार पर जमी हरी काई, आँगन में वर्ल्ड क्लास आइसरिंक जैसी फिसलन, पंक-पयोधि में चप्पल पहनकर चलने से पैंट के निचले-पिछले हिस्से पर बने बूंदी शैली की कलाकृति...पूरे घर में जगह-जगह टपके के नीचे रखे बर्तनों में बजता जलतरंग...यही यादें हैं बरसात के दिनों की.
तपिश से निजात का सुख समझ पाते इससे पहले सीली लकड़ी की सी घुँआती उदासी घेर लेती. सड़क पर गलीज़, घर में उसकी गंध और मन में सबसे मिल-जुलकर बनी गुमसाइन घुटन. छप्पर के सिरे पर टपकता पानी, नेनुआ-झींगी की सरपट बढ़ती लत्तर और अनगिनत गीले छछूंदर, तिलचट्टे, कनगोजर और फतिंगे. लहलहाकर फूली मालती, बरसाती अमरूद, अपनी मर्ज़ी से उगे अखज-बलाय पौधे, भुए, घोंघे और काले-पीले मेढ़क एक ख़ास किच-किच, पिच-पिच वाले मौसम के हिस्से थे.
ये तो अब समझ में आता है कि हमारे घर में जैसी जैव विविधता थी उसे देखकर यूरोपीय जीव वैज्ञानिक पूरी किताब लिख डालते.
नींबू-मसाले वाले भुने भुट्टे टाइप की मेरी यादों पर कीचड़ की एक परत जमी हुई है. लगता नहीं है कीचड़ के साथ आपका उनका रसास्वादन करना चाहेंगे, या कीचड़ हटाने की ज़हमत उठाएँगे इसलिए फ़िलहाल रहने दीजिए.
जिनके घरों में पानी न टपकता हो वे अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ-लजाएँ तो बड़ी मेहरबानी होगी.
आंकड़ों का जाल और भी उलझ सकता है क्योंकि छतों से पानी टपकता है, और छप्परों से भी, हमारे घर में दोनों थे और दोनों टपकते थे. कहीं-कहीं दोनों नहीं टपकते थे, और कहीं कहीं दोनों में से कोई नहीं था.
आया सावन झूम के, काली घटा छाई प्रेम रुत आई ...मेरा लाखों का सावन जाए...जैसे गाने सुनकर बड़े होने के बावजूद मेरी समझ में कभी नहीं आया कि घुटनों तक कीचड़, लबालब बहती काली नाली में उतराते टमाटर, साइकिल के सड़े टायर, प्लास्टिक की गुड़िया, छतरी का डंडा और टूटी चप्पल को देखकर हमारा मन गिजगिजा-सा होता था, सलोनी नायिका क्या देखकर झूमने लगती थी.
अधसूखे कपड़ों की गंध, साइकिल के टायर की रिम पर लगी जंग, दीवार पर जमी हरी काई, आँगन में वर्ल्ड क्लास आइसरिंक जैसी फिसलन, पंक-पयोधि में चप्पल पहनकर चलने से पैंट के निचले-पिछले हिस्से पर बने बूंदी शैली की कलाकृति...पूरे घर में जगह-जगह टपके के नीचे रखे बर्तनों में बजता जलतरंग...यही यादें हैं बरसात के दिनों की.
तपिश से निजात का सुख समझ पाते इससे पहले सीली लकड़ी की सी घुँआती उदासी घेर लेती. सड़क पर गलीज़, घर में उसकी गंध और मन में सबसे मिल-जुलकर बनी गुमसाइन घुटन. छप्पर के सिरे पर टपकता पानी, नेनुआ-झींगी की सरपट बढ़ती लत्तर और अनगिनत गीले छछूंदर, तिलचट्टे, कनगोजर और फतिंगे. लहलहाकर फूली मालती, बरसाती अमरूद, अपनी मर्ज़ी से उगे अखज-बलाय पौधे, भुए, घोंघे और काले-पीले मेढ़क एक ख़ास किच-किच, पिच-पिच वाले मौसम के हिस्से थे.
ये तो अब समझ में आता है कि हमारे घर में जैसी जैव विविधता थी उसे देखकर यूरोपीय जीव वैज्ञानिक पूरी किताब लिख डालते.
नींबू-मसाले वाले भुने भुट्टे टाइप की मेरी यादों पर कीचड़ की एक परत जमी हुई है. लगता नहीं है कीचड़ के साथ आपका उनका रसास्वादन करना चाहेंगे, या कीचड़ हटाने की ज़हमत उठाएँगे इसलिए फ़िलहाल रहने दीजिए.
जिनके घरों में पानी न टपकता हो वे अपनी सुहानी यादें छापकर हमें न जलाएँ-लजाएँ तो बड़ी मेहरबानी होगी.
19 जुलाई, 2008
अर्थ की तलाश व्यर्थ की तलाश
अजीब-सा सपना देखा, मैं ज़ोर से बोल रहा था लेकिन अपने ही शब्द सुन नहीं पा रहा था. नींद में मेरे होंठ हिल रहे थे लेकिन कान और दिमाग़ मिलकर कोई अर्थ नहीं, सिर्फ़ बेचैनी रच रहे थे.
यह गिने-चुने सपनों में था जो पूरे दिन याद रहा. रिप्ले कर-करके कितने ही अर्थ ढूँढता रहा.
शब्दों के गुम होते अर्थ पर पिछली शाम एक दोस्त के साथ हुई बहस याद आई, एक फ़िज़ूल लेख का ख़याल आया जिसके बारे में मैंने कहा था- 'पाँच सौ शब्दों की आपराधिक बर्बादी', या फिर फ़ोन रिसीव करने के लिए बेटे का कार्टून चैनल म्यूट कर दिया था जिसकी वजह से ये सपना आया...या कि मेरे मोबाइल पर आज दो-तीन फ़ोन आए जिनमें कोई आवाज़ नहीं आ रही थी...
वजह जो भी हो, सपना था घबराहट भरने वाला. शब्दों में ध्वनि हो लेकिन अर्थ न हों, शब्दों की वर्तनी हो लेकिन कोई मायने न हो. कितनी भयानक बात है न!
रोज़मर्रा के संसार में कुछ घंटे बिताने के बाद लगा कि ऐसी कोई भयानक बात नहीं है. सब तरफ़ सुख-चैन है.
कोई ऐसा शब्द नहीं मिला जिसमें अर्थ हो, कोई ऐसी वर्तनी नहीं मिली जिसमें मायने हों.
जो प्रहसन है उसे लोग गंभीर राजनीतिक चर्चा बता रहे हैं, जिन बातों पर चिंता होनी चाहिए उन पर मनोरंजन हो रहा है...लेकिन किसी को वैसी घबराहट नहीं हो रही जैसी मुझे कल आधी रात को हुई थी.
आधी रात की नीम बेहोशी का सच या भरी दोपहरी की भागदौड़ का झूठ. सच कितना झूठा है, झूठ कितना सच्चा है. आप ही बताइए!
यह गिने-चुने सपनों में था जो पूरे दिन याद रहा. रिप्ले कर-करके कितने ही अर्थ ढूँढता रहा.
शब्दों के गुम होते अर्थ पर पिछली शाम एक दोस्त के साथ हुई बहस याद आई, एक फ़िज़ूल लेख का ख़याल आया जिसके बारे में मैंने कहा था- 'पाँच सौ शब्दों की आपराधिक बर्बादी', या फिर फ़ोन रिसीव करने के लिए बेटे का कार्टून चैनल म्यूट कर दिया था जिसकी वजह से ये सपना आया...या कि मेरे मोबाइल पर आज दो-तीन फ़ोन आए जिनमें कोई आवाज़ नहीं आ रही थी...
वजह जो भी हो, सपना था घबराहट भरने वाला. शब्दों में ध्वनि हो लेकिन अर्थ न हों, शब्दों की वर्तनी हो लेकिन कोई मायने न हो. कितनी भयानक बात है न!
रोज़मर्रा के संसार में कुछ घंटे बिताने के बाद लगा कि ऐसी कोई भयानक बात नहीं है. सब तरफ़ सुख-चैन है.
कोई ऐसा शब्द नहीं मिला जिसमें अर्थ हो, कोई ऐसी वर्तनी नहीं मिली जिसमें मायने हों.
जो प्रहसन है उसे लोग गंभीर राजनीतिक चर्चा बता रहे हैं, जिन बातों पर चिंता होनी चाहिए उन पर मनोरंजन हो रहा है...लेकिन किसी को वैसी घबराहट नहीं हो रही जैसी मुझे कल आधी रात को हुई थी.
आधी रात की नीम बेहोशी का सच या भरी दोपहरी की भागदौड़ का झूठ. सच कितना झूठा है, झूठ कितना सच्चा है. आप ही बताइए!
02 जुलाई, 2008
पोते के नाम थर्डवर्ल्ड के अम्मा-बाबा का संदेश
अगले शनिवार को मेरा बेटा चार साल का हो जाएगा, हम ख़ुश हैं कि वीकेंड है, बच्चों की कोई छोटी सी पार्टी कर लेंगे. बच्चे के बाबा-अम्मा (दादा-दादी) कई हज़ार किलोमीटर दूर बैठे तीन हफ़्ते से हलक़ान हो रहे हैं कि पोते का जन्मदिन आ रहा है, टाइम पर कार्ड मिलना चाहिए, पहुंचने में पता नहीं कितना वक़्त लगे.
सत्तर पार कर चुके बाबा मानसून के मौसम में कितने सरोवरों से गुज़रकर, पता नहीं कहाँ गए होंगे ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदने. अम्मा-बाबा ने टिप-टिप करती दुपहरी पोते के लिए संदेश लिखने में ख़र्च की होगी. घर के पास कोई पोस्ट बॉक्स भी नहीं है, वे रिक्शे से जीपीओ गए होंगे, लाइन में लगकर लिफ़ाफ़ा रवाना किया होगा, इस आस के साथ कि मिल जाए और वक़्त पर मिल जाए. पिछले पाँच दिन से जब फ़ोन करो, एक ही सवाल होता है--"कार्ड मिला कि नहीं".
रुपए के नींबू तीन कि चार, इसी पर दस मिनट तक बहस करने वाले रिटायर्ड बाबा ने एक पल नहीं सोचा कि इस कार्ड के तीस रूपए क्यों. पोता ख़ुश होगा, कार्ड पर फुटबॉल बना है और दो गोरे लड़के खुश दिख रहे हैं, पोता उनके साथ आइडेंटिफाई कर सकता है. अपने इलाक़े के बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं लेकिन उनके फोटो वाला कार्ड थोड़े न छपता और बिकता है.
अम्मा-बाबा आपकी मेहनत सफल हो गई है, पोते का 'हैप्पी बर्थडे कार्ड' मिल गया है, जन्मदिन से तीन दिन पहले. पोते को कार्ड पढ़कर सुना दिया गया है. सुविधा के लिए बाबा ने अँगरेज़ी में लिखा है, प्यार से अम्मा ने हिंदी में. मज़मून एक ही है.
अनुवाद अम्मा ने कर दिया है, या फिर बाबा ने अम्मा वाले का अनुवाद अँगरेज़ी में किया है. वैसे तो बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि अनुवाद अँगरेज़ी से हिंदी में किया गया है या हिंदी से अँगरेज़ी में. मगर इस मामले में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.
बाबा-अम्मा का पत्र शब्दशः
....................
ऊँ नमः शिवाय
दिनाँक 26-06-2008
परम प्रिय चिरंजीव कृष्णाजी,
अम्मा-बाबा की ओर से ढेर सारा प्यार और शुभ आशीर्वाद, जन्मदिन मुबारक. तुम्हारा चौथा दिन है, तुम खूब खुश रहो, पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहो. अपने पापा मम्मी की सब बातें मानना और उनको खुश रखना. पढ़ाई में मन लगाना. तुम जब लिखना सीख जाओगे तब हमें चिट्ठी लिखना. ईश्वर तुम्हें सारी प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करें. जीवन में खूब उन्नति करो.
ढेर सारे प्यार के साथ
तुम्हारे अम्मा-बाबा
........................
पूरी चिट्ठी सुनने और कार्ड उलट-पलटकर देखने के बाद अनपढ़ पोते ने कहा है--थैंक यू.
बाबा को ठीक-ठीक पता नहीं है, उनका जन्मदिन मकरसंक्राति के एक दिन पहले होता है या एक दिन बाद. कार्ड भेजने, केक काटने का सिलसिला उनके लिए कभी नहीं हुआ, हमारा जन्मदिन मनाया गया और अब पोते का.
मैं कुछ ज्यादा भावुक हो रहा हूँ. रहने दीजिए, इतना बता दीजिए कि पीढ़ियों का यह प्यार ऊपर से नीचे ही क्यों चलता है, नीचे से ऊपर क्यों नहीं.
क्या यही वह जेनेटिक कोडिंग है जो हर अगली पीढ़ी को सींचती जाती है ताकि मानवीय जीवन धरती पर क़ायम रहे. क्या पलटकर उस प्यार को आत्मसात करने और महसूस करने का कोई गुणसूत्र हममें नहीं हैं, अगर हैं तो इतने क्षीण क्यों हैं?
सत्तर पार कर चुके बाबा मानसून के मौसम में कितने सरोवरों से गुज़रकर, पता नहीं कहाँ गए होंगे ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदने. अम्मा-बाबा ने टिप-टिप करती दुपहरी पोते के लिए संदेश लिखने में ख़र्च की होगी. घर के पास कोई पोस्ट बॉक्स भी नहीं है, वे रिक्शे से जीपीओ गए होंगे, लाइन में लगकर लिफ़ाफ़ा रवाना किया होगा, इस आस के साथ कि मिल जाए और वक़्त पर मिल जाए. पिछले पाँच दिन से जब फ़ोन करो, एक ही सवाल होता है--"कार्ड मिला कि नहीं".
रुपए के नींबू तीन कि चार, इसी पर दस मिनट तक बहस करने वाले रिटायर्ड बाबा ने एक पल नहीं सोचा कि इस कार्ड के तीस रूपए क्यों. पोता ख़ुश होगा, कार्ड पर फुटबॉल बना है और दो गोरे लड़के खुश दिख रहे हैं, पोता उनके साथ आइडेंटिफाई कर सकता है. अपने इलाक़े के बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं लेकिन उनके फोटो वाला कार्ड थोड़े न छपता और बिकता है.
अम्मा-बाबा आपकी मेहनत सफल हो गई है, पोते का 'हैप्पी बर्थडे कार्ड' मिल गया है, जन्मदिन से तीन दिन पहले. पोते को कार्ड पढ़कर सुना दिया गया है. सुविधा के लिए बाबा ने अँगरेज़ी में लिखा है, प्यार से अम्मा ने हिंदी में. मज़मून एक ही है.
अनुवाद अम्मा ने कर दिया है, या फिर बाबा ने अम्मा वाले का अनुवाद अँगरेज़ी में किया है. वैसे तो बहुत फ़र्क़ पड़ता है कि अनुवाद अँगरेज़ी से हिंदी में किया गया है या हिंदी से अँगरेज़ी में. मगर इस मामले में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.
बाबा-अम्मा का पत्र शब्दशः
....................
ऊँ नमः शिवाय
दिनाँक 26-06-2008
परम प्रिय चिरंजीव कृष्णाजी,
अम्मा-बाबा की ओर से ढेर सारा प्यार और शुभ आशीर्वाद, जन्मदिन मुबारक. तुम्हारा चौथा दिन है, तुम खूब खुश रहो, पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहो. अपने पापा मम्मी की सब बातें मानना और उनको खुश रखना. पढ़ाई में मन लगाना. तुम जब लिखना सीख जाओगे तब हमें चिट्ठी लिखना. ईश्वर तुम्हें सारी प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करें. जीवन में खूब उन्नति करो.
ढेर सारे प्यार के साथ
तुम्हारे अम्मा-बाबा
........................
पूरी चिट्ठी सुनने और कार्ड उलट-पलटकर देखने के बाद अनपढ़ पोते ने कहा है--थैंक यू.
बाबा को ठीक-ठीक पता नहीं है, उनका जन्मदिन मकरसंक्राति के एक दिन पहले होता है या एक दिन बाद. कार्ड भेजने, केक काटने का सिलसिला उनके लिए कभी नहीं हुआ, हमारा जन्मदिन मनाया गया और अब पोते का.
मैं कुछ ज्यादा भावुक हो रहा हूँ. रहने दीजिए, इतना बता दीजिए कि पीढ़ियों का यह प्यार ऊपर से नीचे ही क्यों चलता है, नीचे से ऊपर क्यों नहीं.
क्या यही वह जेनेटिक कोडिंग है जो हर अगली पीढ़ी को सींचती जाती है ताकि मानवीय जीवन धरती पर क़ायम रहे. क्या पलटकर उस प्यार को आत्मसात करने और महसूस करने का कोई गुणसूत्र हममें नहीं हैं, अगर हैं तो इतने क्षीण क्यों हैं?
30 जून, 2008
व्यवस्था के अंदर, बाहर और ऊपर
मैं इस व्यवस्था से ख़ुश नहीं हूँ लेकिन इसका हिस्सा हूँ.
जीवन और परिवार चलाना है तो इस व्यवस्था के भीतर ही चलाना होगा. सारे क़ानून मानने होंगे, जिन्हें उन लोगों ने लिखा है जिन्होंने क़ानून लिखते वक़्त उसका जवाब भी अलग से लिख लिया था, ठीक वैसे ही जैसे कोई अख़बार में छपी पहेली का जवाब देने से पहले, पन्ना उल्टा करके जल्दी से नज़रें बचाकर, जवाब देख लेता है.
लिखित क़ानून से परे जिनकी सत्ता है, वे ही व्यवस्था के संचालक हैं.
व्यवस्था, जिसे चलाने वाले क़ानून बनाते-तोड़ते हैं, बाक़ी हर किसी को बस पालन करना होता है. कम या ज़्यादा, वह तो इस बात पर निर्भर है कि आप दुनिया के किस हिस्से में रहते हैं.
मैं व्यवस्था का हिस्सा हूँ क्योंकि टैक्स देता हूँ, अमरीका में देता हूँ तो मासूम इराक़ियों के ख़ून के छींटों से अपने दामन को कैसे बचा सकता हूँ, अगर भारत में देता हूँ तो किसी मासूम की पुलिसिया पिटाई का स्पॉन्सर मैं भी तो हूँ.
मैं इस व्यवस्था की शिकायत लेकर इस व्यवस्था से बाहर कहाँ जा सकता हूँ? जो लोग विकल या बेअक्ल होते हैं वे शिकायत लेकर जनता तक जाते हैं, जनता भी तो व्यवस्था का ही हिस्सा होती है, व्यवस्था की बुनियाद. वैसे नेता भी जनता के पास जाते हैं लेकिन वे सीधे उनके पास जाने की जगह उनकी 'अदालत' में जाते हैं.
जनता को पुलिस से शिकायत होती है तो सीबीआई के पास जाती है, सीबीआई से शिकायत हो तो उसी की विशेष अदालत में जाती है, विशेष अदालत में बात न सुनी जाए तो हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर होती है जो आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट तक जाती है, सुप्रीम कोर्ट इस पर कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वह सिर्फ़ कानून की व्याख्या कर सकती है, इसके लिए तो संसद को क़ानून बनाना होगा, संसद यूँ ही कैसे क़ानून बनाए, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता से पूछना होगा...जनता सिस्टम के बाहर है, भीतर है, कहीं है या नहीं है, पता नही.
कितनी झूठी बहसों, कितने फ़र्जी विचार-विमर्शों के बाद कारगर व्यवस्थाएँ बनती हैं जो सत्य-निष्ठा से अनुकरण न करने वालों को जेल भेज देती हैं. अगर आप जेल नहीं जाना चाहते, नक्सली नहीं बनना चाहते तो व्यवस्था में आस्था रखने के अलावा सिर्फ़ एक विकल्प है कि आप क़ानूनन पागल घोषित कर दिए जाएँ ताकि व्यवस्था आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी आयद न कर सके.
इस व्यवस्था के भीतर आप कुछ भी हो सकते हैं, पुलिस वाले या मानवाधिकार कार्यकर्ता, सत्य की खोज करने वाले व्याकुल पत्रकार या फिर सरकारी कर्मचारी...इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता कि सरकारी शराब के ठेके के बाहर मद्य निषेध प्रचार निदेशालय के बोर्ड लगे होते हैं...सब अपना-अपना काम करते हैं, व्यवस्था के भीतर.
बाहर होते ही आप व्यवस्था के ही नहीं, दुनिया की सारी व्यवस्थाओं के, सारे संसार के शत्रु हो जाते हैं...आपका मरना-हारना लगभग निश्चित है लेकिन अगर आप किसी तरह जीत गए तो आप ही व्यवस्था हो जाते हैं, चक्र पूरा हो जाता है. क्यूबा से नेपाल तक.
व्यवस्था के भीतर बहुत जगह है, व्यवस्था से ऊपर चंद लोगों के लिए बहुत आरामदेह कुर्सियाँ हैं, व्यवस्था से बाहर कोई जगह नहीं दिखती.
मैं शायद व्यवस्था विरोधी हूँ, लेकिन व्यवस्था से बाहर क़तई नहीं हूँ. क़ानून तोड़ने के आरोप में जेल नहीं गया, क़ानून जिसने बनाया है उसी से ज़ोर-ज़ोर से कह रहा हूँ कि अपना बनाया हुआ क़ानून क्यों नहीं मानते. कई बार सोचता हूँ कि इस क़ानून का पलड़ा एक तरफ़ झुका हुआ क्यों है, अगले पल सोचता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, क़ानून तो क़ानून है, व्यवस्था तो व्यवस्था है. यानी मैं व्यवस्था में आस्था रखता हूँ लेकिन उसका विरोधी भी हूँ.
मेरी जनहित याचिका जैसे अपने ख़िलाफ़, अपनी ही अदालत में, ख़ुद की शिकायत है.
जीवन और परिवार चलाना है तो इस व्यवस्था के भीतर ही चलाना होगा. सारे क़ानून मानने होंगे, जिन्हें उन लोगों ने लिखा है जिन्होंने क़ानून लिखते वक़्त उसका जवाब भी अलग से लिख लिया था, ठीक वैसे ही जैसे कोई अख़बार में छपी पहेली का जवाब देने से पहले, पन्ना उल्टा करके जल्दी से नज़रें बचाकर, जवाब देख लेता है.
लिखित क़ानून से परे जिनकी सत्ता है, वे ही व्यवस्था के संचालक हैं.
व्यवस्था, जिसे चलाने वाले क़ानून बनाते-तोड़ते हैं, बाक़ी हर किसी को बस पालन करना होता है. कम या ज़्यादा, वह तो इस बात पर निर्भर है कि आप दुनिया के किस हिस्से में रहते हैं.
मैं व्यवस्था का हिस्सा हूँ क्योंकि टैक्स देता हूँ, अमरीका में देता हूँ तो मासूम इराक़ियों के ख़ून के छींटों से अपने दामन को कैसे बचा सकता हूँ, अगर भारत में देता हूँ तो किसी मासूम की पुलिसिया पिटाई का स्पॉन्सर मैं भी तो हूँ.
मैं इस व्यवस्था की शिकायत लेकर इस व्यवस्था से बाहर कहाँ जा सकता हूँ? जो लोग विकल या बेअक्ल होते हैं वे शिकायत लेकर जनता तक जाते हैं, जनता भी तो व्यवस्था का ही हिस्सा होती है, व्यवस्था की बुनियाद. वैसे नेता भी जनता के पास जाते हैं लेकिन वे सीधे उनके पास जाने की जगह उनकी 'अदालत' में जाते हैं.
जनता को पुलिस से शिकायत होती है तो सीबीआई के पास जाती है, सीबीआई से शिकायत हो तो उसी की विशेष अदालत में जाती है, विशेष अदालत में बात न सुनी जाए तो हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर होती है जो आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट तक जाती है, सुप्रीम कोर्ट इस पर कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वह सिर्फ़ कानून की व्याख्या कर सकती है, इसके लिए तो संसद को क़ानून बनाना होगा, संसद यूँ ही कैसे क़ानून बनाए, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता से पूछना होगा...जनता सिस्टम के बाहर है, भीतर है, कहीं है या नहीं है, पता नही.
कितनी झूठी बहसों, कितने फ़र्जी विचार-विमर्शों के बाद कारगर व्यवस्थाएँ बनती हैं जो सत्य-निष्ठा से अनुकरण न करने वालों को जेल भेज देती हैं. अगर आप जेल नहीं जाना चाहते, नक्सली नहीं बनना चाहते तो व्यवस्था में आस्था रखने के अलावा सिर्फ़ एक विकल्प है कि आप क़ानूनन पागल घोषित कर दिए जाएँ ताकि व्यवस्था आपके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी आयद न कर सके.
इस व्यवस्था के भीतर आप कुछ भी हो सकते हैं, पुलिस वाले या मानवाधिकार कार्यकर्ता, सत्य की खोज करने वाले व्याकुल पत्रकार या फिर सरकारी कर्मचारी...इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता कि सरकारी शराब के ठेके के बाहर मद्य निषेध प्रचार निदेशालय के बोर्ड लगे होते हैं...सब अपना-अपना काम करते हैं, व्यवस्था के भीतर.
बाहर होते ही आप व्यवस्था के ही नहीं, दुनिया की सारी व्यवस्थाओं के, सारे संसार के शत्रु हो जाते हैं...आपका मरना-हारना लगभग निश्चित है लेकिन अगर आप किसी तरह जीत गए तो आप ही व्यवस्था हो जाते हैं, चक्र पूरा हो जाता है. क्यूबा से नेपाल तक.
व्यवस्था के भीतर बहुत जगह है, व्यवस्था से ऊपर चंद लोगों के लिए बहुत आरामदेह कुर्सियाँ हैं, व्यवस्था से बाहर कोई जगह नहीं दिखती.
मैं शायद व्यवस्था विरोधी हूँ, लेकिन व्यवस्था से बाहर क़तई नहीं हूँ. क़ानून तोड़ने के आरोप में जेल नहीं गया, क़ानून जिसने बनाया है उसी से ज़ोर-ज़ोर से कह रहा हूँ कि अपना बनाया हुआ क़ानून क्यों नहीं मानते. कई बार सोचता हूँ कि इस क़ानून का पलड़ा एक तरफ़ झुका हुआ क्यों है, अगले पल सोचता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, क़ानून तो क़ानून है, व्यवस्था तो व्यवस्था है. यानी मैं व्यवस्था में आस्था रखता हूँ लेकिन उसका विरोधी भी हूँ.
मेरी जनहित याचिका जैसे अपने ख़िलाफ़, अपनी ही अदालत में, ख़ुद की शिकायत है.
16 जून, 2008
आम बगइचा आदर्श विद्यालय
दू एकम दू, दू दुनी चार, दू तिया छै, दू चौके आठ...हिल-हिल के याद किया है, नए ज़माने के टू टू जा फ़ोर वाले बच्चे तो हिलते ही नहीं हैं.
अब सिर्फ़ अलीफ़ बे वाले बच्चों को हिलता हुआ देखता हूँ जबकि हमारा इस्कूल पंडित जी चलाते थे, उनमें और मदरसा वाले मौलवी साहब में एक समानता थी, दोनों को यक़ीन था कि हिल-हिलकर याद करने से दिमाग़ में बात अच्छी तरह अंटती है, जैसे मर्तबान को हिलाने से उसमें ज्यादा सामान भरा जा सकता है.
हिल-हिलकर याद करना कट्टरपंथ का नहीं, रट्टरपंथ का मसला है.
कुछ अच्छा सा ही नाम रहा होगा, मेरे पहले स्कूल का, आदर्श शिक्षा मंदिर जैसा कुछ, क्योंकि उन दिनों सेंट या पब्लिक नाम वाले स्कूल चलन में नहीं थे. मुझे जो नाम पता है, वह है आम बगइचा (बागीचा). यथा नाम तथा पता, आम के बगान के बीचोंबीच स्थित चार कमरों का खपरैल, टाट पट्टी स्कूल से बेहतर रहा होगा क्योंकि वहाँ अपना आसन ले जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, लकड़ी के बेंच थे.
मैं अपनी क्लास का सबसे होशियार छात्र था, ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि मुझे सबसे अधिक टॉफ़ियाँ मिलती थीं. हरे-नारंगी रंग के लेमनचूस मटमैले सूती कपड़े की पोटली में छप्पर की लकड़ी से लटके होते थे. उत्तर से प्रसन्न होने पर माधो सर अपनी छड़ी से खोदकर एक टॉफ़ी गिराकर मेरा नाम लेते, बाक़ी बच्चे तरसते हुए देखते रह जाते, वह टॉफ़ी कम और ट्रॉफ़ी ज्यादा लगती.
मुझे मटमैली पोटली से अक्सर टॉफ़ी मिलती और क्लास के मटमैले बच्चों को उसी छड़ी का प्रसाद जिससे ठेलकर मेरे लिए टॉफ़ी निकाली जाती. मैं स्कूल के उन गिनेचुने बच्चों में था जो साफ़-सुथरे कपड़े पहनते थे, जिनके अभिभावकों को हमारे सर लपककर नमस्कार करते थे और जिन्हें घर में प्यार से पढ़ाया जाता था.
आम बगइचा विद्यालय की एक बात जो मुझे बेहद पसंद थी कि साल के ज्यादातर महीनों में वहाँ तक पहुँचने के रास्ते में इतना कीचड़ होता था कि प्राइमरी स्कूल का बच्चा आकंठ डूब जाए, इसलिए हमें हमेशा नाना के नौकर गौरीशंकर की कंधे की सवारी मिलती या फिर किसी की साइकिल की.
धुंधली सी याद है, बारिश के दिन थे, कोई हमें लेने नहीं आ पाया, घुटने से ऊपर नाले का पानी बह रहा था, झालो भइया (दो भाई थे, झालो और मालो) जो नाना के घर के सामने रहते थे उन्होंने हमें गोद में उठाकर घर पहुँचाया. वे हमारे ही स्कूल में पढ़ते थे, उनका असली नाम और क्लास का मुझे पता नहीं था लेकिन वे काफ़ी समय तक हमारी नज़रों में बजरंग बली जैसे बलशाली रहे. तीस साल बाद पता चला कि सचमुच बलशाली थे, बैंक लूटने के चक्कर में पटना में गोली खाकर शहीद हो गए.
पंडित जी के आम बगइचा स्कूल में लड़कियाँ भी पढ़ती थीं, इसी स्कूल में पहली बार एक लड़की से दोस्ती हुई जिसका नाम रश्मि था, उस लड़की से मैंने दोस्ती के लिए कुछ किया हो ऐसा याद नहीं है, लेकिन वह मेरे साथ ही आकर बैठती थी. मुझे जब चेचक निकला और मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं गया तो वह अपनी माँ के साथ मुझे देखने पहुँच गई. पहली क्लास की बच्ची को मैंने अपने घर का पता नहीं बताया था (मुझे ही कहाँ मालूम था), वह स्कूल मास्टर से पूछकर किस तरह मुझ तक पहुँची होगी, अब सोचता हूँ.
रश्मि के बारे में इतना ही याद है कि उसका गोल सा, साफ़-सुथरा चेहरा था, नाक-कान ताज़ा-ताज़ा छिदवाए गए थे जिनमें वो नीम की सींक खोंसकर घूमती थी, मुझे ऐसा लगता कि उसके पापा ने अपनी सुविधा के लिए उन्हें वहाँ रखा है जब खाना दाँत में अटकेगा तो सींक उसके कानों से निकालकर दाँत साफ़ कर लेंगे. इस बात पर वह थोड़ी देर के लिए चिढ़ जाती थी.
आम बगइचा स्कूल में मैं सिर्फ़ कुछ महीने पढ़ा लेकिन बड़ी शान से पढ़ा, बाद में कथित इंग्लिश मीडियम प्राइमरी स्कूल में जाते ही मेरा हाल वही हो गया जो आम बगइचा के मटमैले बच्चों का था, शुरू के कुछ महीनों के लिए तो ज़रूर.
अब सिर्फ़ अलीफ़ बे वाले बच्चों को हिलता हुआ देखता हूँ जबकि हमारा इस्कूल पंडित जी चलाते थे, उनमें और मदरसा वाले मौलवी साहब में एक समानता थी, दोनों को यक़ीन था कि हिल-हिलकर याद करने से दिमाग़ में बात अच्छी तरह अंटती है, जैसे मर्तबान को हिलाने से उसमें ज्यादा सामान भरा जा सकता है.
हिल-हिलकर याद करना कट्टरपंथ का नहीं, रट्टरपंथ का मसला है.
कुछ अच्छा सा ही नाम रहा होगा, मेरे पहले स्कूल का, आदर्श शिक्षा मंदिर जैसा कुछ, क्योंकि उन दिनों सेंट या पब्लिक नाम वाले स्कूल चलन में नहीं थे. मुझे जो नाम पता है, वह है आम बगइचा (बागीचा). यथा नाम तथा पता, आम के बगान के बीचोंबीच स्थित चार कमरों का खपरैल, टाट पट्टी स्कूल से बेहतर रहा होगा क्योंकि वहाँ अपना आसन ले जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, लकड़ी के बेंच थे.
मैं अपनी क्लास का सबसे होशियार छात्र था, ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि मुझे सबसे अधिक टॉफ़ियाँ मिलती थीं. हरे-नारंगी रंग के लेमनचूस मटमैले सूती कपड़े की पोटली में छप्पर की लकड़ी से लटके होते थे. उत्तर से प्रसन्न होने पर माधो सर अपनी छड़ी से खोदकर एक टॉफ़ी गिराकर मेरा नाम लेते, बाक़ी बच्चे तरसते हुए देखते रह जाते, वह टॉफ़ी कम और ट्रॉफ़ी ज्यादा लगती.
मुझे मटमैली पोटली से अक्सर टॉफ़ी मिलती और क्लास के मटमैले बच्चों को उसी छड़ी का प्रसाद जिससे ठेलकर मेरे लिए टॉफ़ी निकाली जाती. मैं स्कूल के उन गिनेचुने बच्चों में था जो साफ़-सुथरे कपड़े पहनते थे, जिनके अभिभावकों को हमारे सर लपककर नमस्कार करते थे और जिन्हें घर में प्यार से पढ़ाया जाता था.
आम बगइचा विद्यालय की एक बात जो मुझे बेहद पसंद थी कि साल के ज्यादातर महीनों में वहाँ तक पहुँचने के रास्ते में इतना कीचड़ होता था कि प्राइमरी स्कूल का बच्चा आकंठ डूब जाए, इसलिए हमें हमेशा नाना के नौकर गौरीशंकर की कंधे की सवारी मिलती या फिर किसी की साइकिल की.
धुंधली सी याद है, बारिश के दिन थे, कोई हमें लेने नहीं आ पाया, घुटने से ऊपर नाले का पानी बह रहा था, झालो भइया (दो भाई थे, झालो और मालो) जो नाना के घर के सामने रहते थे उन्होंने हमें गोद में उठाकर घर पहुँचाया. वे हमारे ही स्कूल में पढ़ते थे, उनका असली नाम और क्लास का मुझे पता नहीं था लेकिन वे काफ़ी समय तक हमारी नज़रों में बजरंग बली जैसे बलशाली रहे. तीस साल बाद पता चला कि सचमुच बलशाली थे, बैंक लूटने के चक्कर में पटना में गोली खाकर शहीद हो गए.
पंडित जी के आम बगइचा स्कूल में लड़कियाँ भी पढ़ती थीं, इसी स्कूल में पहली बार एक लड़की से दोस्ती हुई जिसका नाम रश्मि था, उस लड़की से मैंने दोस्ती के लिए कुछ किया हो ऐसा याद नहीं है, लेकिन वह मेरे साथ ही आकर बैठती थी. मुझे जब चेचक निकला और मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं गया तो वह अपनी माँ के साथ मुझे देखने पहुँच गई. पहली क्लास की बच्ची को मैंने अपने घर का पता नहीं बताया था (मुझे ही कहाँ मालूम था), वह स्कूल मास्टर से पूछकर किस तरह मुझ तक पहुँची होगी, अब सोचता हूँ.
रश्मि के बारे में इतना ही याद है कि उसका गोल सा, साफ़-सुथरा चेहरा था, नाक-कान ताज़ा-ताज़ा छिदवाए गए थे जिनमें वो नीम की सींक खोंसकर घूमती थी, मुझे ऐसा लगता कि उसके पापा ने अपनी सुविधा के लिए उन्हें वहाँ रखा है जब खाना दाँत में अटकेगा तो सींक उसके कानों से निकालकर दाँत साफ़ कर लेंगे. इस बात पर वह थोड़ी देर के लिए चिढ़ जाती थी.
आम बगइचा स्कूल में मैं सिर्फ़ कुछ महीने पढ़ा लेकिन बड़ी शान से पढ़ा, बाद में कथित इंग्लिश मीडियम प्राइमरी स्कूल में जाते ही मेरा हाल वही हो गया जो आम बगइचा के मटमैले बच्चों का था, शुरू के कुछ महीनों के लिए तो ज़रूर.
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10 जून, 2008
वसंत की वीकेंड डायरी
ऋतुराज वसंत आता है, चला जाता है, हम अपनी धुन में चले जाते हैं. थोड़ा रुकें तो पता चले, कौन आया, कौन गया. न अपने क़स्बे में, न दिल्ली में पता चला कि वसंत क्या होता है. लंदन में मेरे लिए दस साल से वसंत आता है, ठंड से सिहरे मन की कोंपले खिलती हैं लेकिन नवांकुरों का हर्ष कहीं दर्ज नहीं कर पाता. इस बार इरादा किया कि वसंत में आँखें जो देखें उन्हें उँगलियाँ कागज़ पर उतार लें, कुछ छोटी-छोटी बातें पुर्जियों पर लिख पाया. तस्वीरें वक़्त का नहीं, लम्हों का सच बताती हैं...कुछ ऐसा ही.
19 अप्रैल--खिड़की से आती किरणों ने इस मौसम में पहली बार जगाया है, ठंड है, जैकेट पहननी पड़ेगी लेकिन पीले वसंती डेफ़ोडिल्स कह रहे हैं- बस चंद रोज़ और...आसमान साफ़ है,रोशनी भी है मगर इसे धूप नहीं कहा जा सकता, फिर भी गुनगुने दिनों का आलाप शुरू हो गया है. बालकनी से दिखने वाली घास में हरियाली लौट रही है हालाँकि ज्यादातर पेड़ अब भी सहमे खड़े हैं पत्तों के बिना. जिसने पतझड़ के ठूंठ न देखे हों, उसे इस बहार का उल्लास कैसे समझ में आए, मुझे ही कितने साल लग गए.
20 अप्रैल--हल्की सी बारिश सुबह हुई है लेकिन ठंड नहीं है. हरी घास पर छोटे-छोटे सफ़ेद और पीले फूल खिल आए हैं, लगता है कि छींट वाले कपड़ों का खयाल शायद हरी घास पर खिले फूलों से ही आया होगा. शॉपिंग सेंटर जाते हुए नहर में रहने वाली बत्तखों के तीन छोटे बच्चे दिखाई दिए. पता नहीं बत्तख के बच्चों को बदसूरत (अग्ली डकलिंग) क्यों कहते हैं, मुझे तो ख़ासे सुंदर लग रहे हैं, बच्चे तो सूअर के भी अच्छे लगते हैं बशर्ते नालियों में लोट न लगा रहे हों.
26 अप्रैल--देर से सोकर उठने पर अक्सर दिन कुछ नाराज़ सा लगता है, लेकिन आज जैसे मुस्कुराकर कह रहा है--इतना क्यों सोते है,अच्छा जाने दो, कोई बात नहीं. दिन भी अच्छे मूड में है. खिड़की से दिखने वाले चेरी के पेड़ पर सफेद फूल रातोरात उग आए हैं मानो उनमें रसे भरे फल बनने की बड़ी बेचैनी हो. सिहरे-सहमे नंगे खड़े पेड़ों ने अंगड़ाई ली है, कोंपले दिखने लगी हैं...नेचर के टाइम डिलेड कैमरे का जादू धीरे-धीरे खुल रहा है.
27 अप्रैल--ठंडी हवा बह रही है, आसमान पर बादल हैं, सुबह के नौ बज गए लेकिन पता नहीं चल रहा. वसंत आया है या मौसम ने अपने क़दम सर्दी की तरफ़ वापस खींच लिए हैं. झाड़ी में दुबकी गिलहरी भी शायद मेरी तरह सोच रही है जिसका सर्दियों में जमा किया रसद ख़त्म होने को होगा. गिलहरी ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं सोच सकती, हम सोच सकते हैं, न गिलहरी कुछ कुछ कर सकती है,न हम.
3 मई--पता नहीं सर्दियों में ये चिड़िया कहाँ छिप जाती है, या गूंगी हो जाती है...सुबह पानी पीने उठा, दो-एक घंटे और सोने का इरादा लेकर, ऐसा गाने लगी कि सोने का खयाल गुम हो गया. मगर मैं तो मैं हूं, कोई और होता तो घूमने निकल पड़ता, कलरव सुनने के बदले कीपैड की पिटपिट शुरु कर दी. पहली बार बालकनी का दरवाज़ा खोलकर बैठा हूँ, हीटिंग ऑफ़ है और गर्म कपड़ों की ज़रूरत नहीं. ऐसा लग रहा है जैसे भारी कर्ज़ उतर गया हो.
4 मई--शायद वसंत की अपनी ऊर्जा होती है जिससे फूल खिलते हैं, पेड़ हरियाते हैं, अंडों में से चूज़े निकलते हैं, एक अदभुत सृजनात्मक ऊर्जा. मन हो रहा है कि टहलता हूआ कहीं दूर तक निकल जाऊँ. अपने पोर खुलते हुए से लग रहे हैं, एक अजीब सा उत्साह है, भूरे मटमैले गंदले से माहौल से चटक हरे रंग की ओर जाने का हुलास.
10 मई--हर ओर फूल दिख रहे हैं, ऐसी वाहियात दिखने वाली डालों पर कैसे लहलहाकर फूल खिल सकते हैं, सोचना भी मुश्किल है. सफ़ेद,पीले ही नहीं,बैंगनी,नीले और हरे रंग के फूल भी दिख रहे हैं. कितना कुछ है इस हवा,पानी,मिट्टी और धूप में, मेरा कौतूहल कुछ बचकाना सा हो रहा है, छिपाना पड़ता है लोगों से, लोग कहते हैं कि इसमें ऐसी कौन सी बात है...क्या वे सही कहते हैं?
17 मई--शाम के आठ बजे हैं, रात के नहीं..उजाला अब भी है, रात कैसे कहें. पड़ोसियों ने बारबीक्यू के लिए चारकोल सुलगाई है, बियर खोली है और शायद मौसम पर बात नहीं कर रहे हैं, और अच्छी बातें हैं करने को जो इस मौसम की ही बदौलत है. पड़ोसी ने पिछले साल शादी की है, बरसों से खर-पतवार का मेहमान बने उसके लॉन में नए फूलों की क्यारियाँ दिख रही हैं. बच्चे गार्डन से वापस घर नहीं आना चाहते, बालकनी में खड़ी माँ ज़्यादा ज़ोर नहीं दे रही, कितना इंतज़ार था इन दिनों का...
वसंत बहुत सुंदर है, सप्ताह के सातों दिन लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ वीकेंड पर.
19 अप्रैल--खिड़की से आती किरणों ने इस मौसम में पहली बार जगाया है, ठंड है, जैकेट पहननी पड़ेगी लेकिन पीले वसंती डेफ़ोडिल्स कह रहे हैं- बस चंद रोज़ और...आसमान साफ़ है,रोशनी भी है मगर इसे धूप नहीं कहा जा सकता, फिर भी गुनगुने दिनों का आलाप शुरू हो गया है. बालकनी से दिखने वाली घास में हरियाली लौट रही है हालाँकि ज्यादातर पेड़ अब भी सहमे खड़े हैं पत्तों के बिना. जिसने पतझड़ के ठूंठ न देखे हों, उसे इस बहार का उल्लास कैसे समझ में आए, मुझे ही कितने साल लग गए.
20 अप्रैल--हल्की सी बारिश सुबह हुई है लेकिन ठंड नहीं है. हरी घास पर छोटे-छोटे सफ़ेद और पीले फूल खिल आए हैं, लगता है कि छींट वाले कपड़ों का खयाल शायद हरी घास पर खिले फूलों से ही आया होगा. शॉपिंग सेंटर जाते हुए नहर में रहने वाली बत्तखों के तीन छोटे बच्चे दिखाई दिए. पता नहीं बत्तख के बच्चों को बदसूरत (अग्ली डकलिंग) क्यों कहते हैं, मुझे तो ख़ासे सुंदर लग रहे हैं, बच्चे तो सूअर के भी अच्छे लगते हैं बशर्ते नालियों में लोट न लगा रहे हों.
26 अप्रैल--देर से सोकर उठने पर अक्सर दिन कुछ नाराज़ सा लगता है, लेकिन आज जैसे मुस्कुराकर कह रहा है--इतना क्यों सोते है,अच्छा जाने दो, कोई बात नहीं. दिन भी अच्छे मूड में है. खिड़की से दिखने वाले चेरी के पेड़ पर सफेद फूल रातोरात उग आए हैं मानो उनमें रसे भरे फल बनने की बड़ी बेचैनी हो. सिहरे-सहमे नंगे खड़े पेड़ों ने अंगड़ाई ली है, कोंपले दिखने लगी हैं...नेचर के टाइम डिलेड कैमरे का जादू धीरे-धीरे खुल रहा है.
27 अप्रैल--ठंडी हवा बह रही है, आसमान पर बादल हैं, सुबह के नौ बज गए लेकिन पता नहीं चल रहा. वसंत आया है या मौसम ने अपने क़दम सर्दी की तरफ़ वापस खींच लिए हैं. झाड़ी में दुबकी गिलहरी भी शायद मेरी तरह सोच रही है जिसका सर्दियों में जमा किया रसद ख़त्म होने को होगा. गिलहरी ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं सोच सकती, हम सोच सकते हैं, न गिलहरी कुछ कुछ कर सकती है,न हम.
3 मई--पता नहीं सर्दियों में ये चिड़िया कहाँ छिप जाती है, या गूंगी हो जाती है...सुबह पानी पीने उठा, दो-एक घंटे और सोने का इरादा लेकर, ऐसा गाने लगी कि सोने का खयाल गुम हो गया. मगर मैं तो मैं हूं, कोई और होता तो घूमने निकल पड़ता, कलरव सुनने के बदले कीपैड की पिटपिट शुरु कर दी. पहली बार बालकनी का दरवाज़ा खोलकर बैठा हूँ, हीटिंग ऑफ़ है और गर्म कपड़ों की ज़रूरत नहीं. ऐसा लग रहा है जैसे भारी कर्ज़ उतर गया हो.
4 मई--शायद वसंत की अपनी ऊर्जा होती है जिससे फूल खिलते हैं, पेड़ हरियाते हैं, अंडों में से चूज़े निकलते हैं, एक अदभुत सृजनात्मक ऊर्जा. मन हो रहा है कि टहलता हूआ कहीं दूर तक निकल जाऊँ. अपने पोर खुलते हुए से लग रहे हैं, एक अजीब सा उत्साह है, भूरे मटमैले गंदले से माहौल से चटक हरे रंग की ओर जाने का हुलास.
10 मई--हर ओर फूल दिख रहे हैं, ऐसी वाहियात दिखने वाली डालों पर कैसे लहलहाकर फूल खिल सकते हैं, सोचना भी मुश्किल है. सफ़ेद,पीले ही नहीं,बैंगनी,नीले और हरे रंग के फूल भी दिख रहे हैं. कितना कुछ है इस हवा,पानी,मिट्टी और धूप में, मेरा कौतूहल कुछ बचकाना सा हो रहा है, छिपाना पड़ता है लोगों से, लोग कहते हैं कि इसमें ऐसी कौन सी बात है...क्या वे सही कहते हैं?
17 मई--शाम के आठ बजे हैं, रात के नहीं..उजाला अब भी है, रात कैसे कहें. पड़ोसियों ने बारबीक्यू के लिए चारकोल सुलगाई है, बियर खोली है और शायद मौसम पर बात नहीं कर रहे हैं, और अच्छी बातें हैं करने को जो इस मौसम की ही बदौलत है. पड़ोसी ने पिछले साल शादी की है, बरसों से खर-पतवार का मेहमान बने उसके लॉन में नए फूलों की क्यारियाँ दिख रही हैं. बच्चे गार्डन से वापस घर नहीं आना चाहते, बालकनी में खड़ी माँ ज़्यादा ज़ोर नहीं दे रही, कितना इंतज़ार था इन दिनों का...
वसंत बहुत सुंदर है, सप्ताह के सातों दिन लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ वीकेंड पर.
29 मार्च, 2008
अजित भाई, हिम्मत जवाब दे रही है
आपका बकलमख़ुद सरकलमख़ुद जैसा ही है. कई लोग हिम्मत जुटा लेते हैं, एक हफ़्ते से चिंता में घुला जा रहा हूँ कि आत्मकथानुमा क्या लिखूँ. आपका रिमाइंडर आने ही वाला होगा, दुनिया में शायद आप ही हैं जिसे मेरे सरकलमख़ुद न करने पर मलाल होगा.
सच मैं लिख नहीं सकता, झूठ भी लिखा नहीं जाएगा, तो फिर बचा क्या लिखने को. क्या आप मुझे इतना मूर्ख समझते हैं कि सब सच-सच लिख दूँ और कहीं मुँह दिखाने के काबिल न रहूँ. ऐसी बातें सबकी ज़िंदगी में होती हैं. जिसके जीवन में नहीं हैं वो झूठ बोल रहा है या फिर उसने जीवन बहुत संभालकर ख़र्च किया है, मानो किसी से माँगकर लाया हो, ज्यों की त्यों लौटानी हो, कबीर की चदरिया की तरह.
एक जीवन जिसे मैंने अपने जीवन की तरह जिया है, किसी और के जीवन की तरह बेलाग होकर उसके बारे में सच-सच कैसे लिख दूँ. इस बात के कोई आसार नहीं हैं कि मैं ये ग़ैर-मामूली काम कर पाऊँ. जो अपने जीवन को किसी और का समझकर जीते हैं वो अगर आत्मकथा लिख दें तो कमाल हो जाता है, माइ कन्फ़ेशंस इसकी सबसे अच्छी मिसाल है.
एक मध्यवर्गीय, सवर्ण, नौकरीपेशा, भीरू क़िस्म का पारिवारिक आदमी क्या खाकर पठनीय आत्मकथा लिख देगा. कुछ देखा हो, कुछ झेला हो, कुछ गुल खिलाए हों तब तो बताए. सोचता हूँ कि मैं कायर नहीं हूँ, कि मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ, कि मैं दंभी नहीं हूँ, कि मैं ढोंगी नहीं हूँ, कि मैं हिपोक्रेट नहीं हूँ...टाइप बातें लिख दूँ लेकिन फिर लगता है कि मैं अगर ये सब नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ.
जो किया वो अच्छा नहीं लगा, जो नहीं किया वही अच्छा लगता है. काम में मन नहीं लगा, मन का काम नहीं किया. ऐसा जीवन हो और कोई प्यार से कहे कि बकलमख़ुद लिखिए तो जी घबराने लगता है.
कई बार लगता है-जिंदगी कुछ भी नहीं, फिर भी जिए जाते हैं, ऐ वक़्त तुझ पे एहसान किए जाते हैं...फिर लगता है- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है, जीवन में इज़्ज़त की नौकरी (?) है, अपना घर है, अच्छी सी बीवी है, प्यारा सा बच्चा है, सब तो है. अगर नौकरी, घर, बीवी, बच्चे से आत्मकथा बनती तो पाँच अरब लोग बना चुके होते.
ख़ूबियाँ तो हैं नहीं, खोज-खोजकर अपने सारे ऐब गिना दूँ तो भी नहीं बनेगी पढ़ने लायक आत्मकथा. 37 साल क्या करने में गुज़ार दिए कि एक अदद आत्मकथा लिखने लायक़ नहीं हुए. इस उम्र में करने वाले क्या-क्या कर गुज़रते हैं, हम नौकरी करते रह गए. हर साल कम से कम दो-तीन बार ज़रूर सोचा कि नौकरी छोड़कर दुनिया घूम लें, कुछ लिखने लायक़ अनुभव जुटा लें फिर कुछ ऐसा तगड़ा सा लिखेंगे कि आग लग जाए हिंदी के बाज़ार में. नौकरी तो हम छोड़ने से रहे, अब नौकरी हमें छोड़ दे तो कुछ बात आगे बढ़े.
पता नहीं कितनी पचासों बातें हैं जो मैं ख़ुद से छिपाता रहा हूँ अगर मैं उन्हें लिखूँ तो पढ़ने वालों को बहुत मज़ा आएगा मगर वो बातें मन के अंधेरे कोनों में दफ़न होती हैं जहाँ ख़ुद जाने की हिम्मत नहीं होती है. कभी कोई घटना, कोई सपना बता देता है कि अंधेरे कोने में क्या-क्या दबा है, हमारा मन ढेर सारी इच्छाओं-कुंठाओं और वेदनाओं की कब्र है. शायद इसीलिए हम इतना कठिन जीवन फिर भी जी लेते हैं.
अजित भाई, आप नहीं कह रहे हैं कि जो लिखूँ वह सच ही हो, आप कह रहे हैं जो अच्छा लगे लिखिए, जैसे अच्छा लगे लिखिए...बस अपने बारे में लिखिए. लेकिन बकलमख़ुद इतना डरावना नाम है कि मेरी हिम्मत पस्त हो रही है. रोचक संस्मरण, यादगार पल, प्रेरक प्रसंग टाइप कोई नाम नहीं सोच सकते थे आप. आपके प्रस्ताव पर बहुत विचार किया लेकिन डरा-सहमा सा हूँ, क्या लिखूँ, क्यों लिखूँ, कोई क्यों पढ़ेगा? ब्लॉग पर तो कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखते रहते हैं, बकलमख़ुद में कैसे लिखेंगे?
अपने ढेर सारे ऐबों में एक ये भी है कि बहुत इमेज कॉन्शस हैं, इसी इमेज के भूत से बचने के लिए अनामदास नाम रखा, अब आप लोगों ने अनामदास की भी इमेज बना दी है इसलिए डर लग रहा है. कुछ बचपन की फुटकर मज़ेदार बातें लिखने का इरादा है, चलेगा क्या? फिर भी आप उसे बकलमखुद कहने का इसरार करेंगे?
सच मैं लिख नहीं सकता, झूठ भी लिखा नहीं जाएगा, तो फिर बचा क्या लिखने को. क्या आप मुझे इतना मूर्ख समझते हैं कि सब सच-सच लिख दूँ और कहीं मुँह दिखाने के काबिल न रहूँ. ऐसी बातें सबकी ज़िंदगी में होती हैं. जिसके जीवन में नहीं हैं वो झूठ बोल रहा है या फिर उसने जीवन बहुत संभालकर ख़र्च किया है, मानो किसी से माँगकर लाया हो, ज्यों की त्यों लौटानी हो, कबीर की चदरिया की तरह.
एक जीवन जिसे मैंने अपने जीवन की तरह जिया है, किसी और के जीवन की तरह बेलाग होकर उसके बारे में सच-सच कैसे लिख दूँ. इस बात के कोई आसार नहीं हैं कि मैं ये ग़ैर-मामूली काम कर पाऊँ. जो अपने जीवन को किसी और का समझकर जीते हैं वो अगर आत्मकथा लिख दें तो कमाल हो जाता है, माइ कन्फ़ेशंस इसकी सबसे अच्छी मिसाल है.
एक मध्यवर्गीय, सवर्ण, नौकरीपेशा, भीरू क़िस्म का पारिवारिक आदमी क्या खाकर पठनीय आत्मकथा लिख देगा. कुछ देखा हो, कुछ झेला हो, कुछ गुल खिलाए हों तब तो बताए. सोचता हूँ कि मैं कायर नहीं हूँ, कि मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ, कि मैं दंभी नहीं हूँ, कि मैं ढोंगी नहीं हूँ, कि मैं हिपोक्रेट नहीं हूँ...टाइप बातें लिख दूँ लेकिन फिर लगता है कि मैं अगर ये सब नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ.
जो किया वो अच्छा नहीं लगा, जो नहीं किया वही अच्छा लगता है. काम में मन नहीं लगा, मन का काम नहीं किया. ऐसा जीवन हो और कोई प्यार से कहे कि बकलमख़ुद लिखिए तो जी घबराने लगता है.
कई बार लगता है-जिंदगी कुछ भी नहीं, फिर भी जिए जाते हैं, ऐ वक़्त तुझ पे एहसान किए जाते हैं...फिर लगता है- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है, जीवन में इज़्ज़त की नौकरी (?) है, अपना घर है, अच्छी सी बीवी है, प्यारा सा बच्चा है, सब तो है. अगर नौकरी, घर, बीवी, बच्चे से आत्मकथा बनती तो पाँच अरब लोग बना चुके होते.
ख़ूबियाँ तो हैं नहीं, खोज-खोजकर अपने सारे ऐब गिना दूँ तो भी नहीं बनेगी पढ़ने लायक आत्मकथा. 37 साल क्या करने में गुज़ार दिए कि एक अदद आत्मकथा लिखने लायक़ नहीं हुए. इस उम्र में करने वाले क्या-क्या कर गुज़रते हैं, हम नौकरी करते रह गए. हर साल कम से कम दो-तीन बार ज़रूर सोचा कि नौकरी छोड़कर दुनिया घूम लें, कुछ लिखने लायक़ अनुभव जुटा लें फिर कुछ ऐसा तगड़ा सा लिखेंगे कि आग लग जाए हिंदी के बाज़ार में. नौकरी तो हम छोड़ने से रहे, अब नौकरी हमें छोड़ दे तो कुछ बात आगे बढ़े.
पता नहीं कितनी पचासों बातें हैं जो मैं ख़ुद से छिपाता रहा हूँ अगर मैं उन्हें लिखूँ तो पढ़ने वालों को बहुत मज़ा आएगा मगर वो बातें मन के अंधेरे कोनों में दफ़न होती हैं जहाँ ख़ुद जाने की हिम्मत नहीं होती है. कभी कोई घटना, कोई सपना बता देता है कि अंधेरे कोने में क्या-क्या दबा है, हमारा मन ढेर सारी इच्छाओं-कुंठाओं और वेदनाओं की कब्र है. शायद इसीलिए हम इतना कठिन जीवन फिर भी जी लेते हैं.
अजित भाई, आप नहीं कह रहे हैं कि जो लिखूँ वह सच ही हो, आप कह रहे हैं जो अच्छा लगे लिखिए, जैसे अच्छा लगे लिखिए...बस अपने बारे में लिखिए. लेकिन बकलमख़ुद इतना डरावना नाम है कि मेरी हिम्मत पस्त हो रही है. रोचक संस्मरण, यादगार पल, प्रेरक प्रसंग टाइप कोई नाम नहीं सोच सकते थे आप. आपके प्रस्ताव पर बहुत विचार किया लेकिन डरा-सहमा सा हूँ, क्या लिखूँ, क्यों लिखूँ, कोई क्यों पढ़ेगा? ब्लॉग पर तो कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखते रहते हैं, बकलमख़ुद में कैसे लिखेंगे?
अपने ढेर सारे ऐबों में एक ये भी है कि बहुत इमेज कॉन्शस हैं, इसी इमेज के भूत से बचने के लिए अनामदास नाम रखा, अब आप लोगों ने अनामदास की भी इमेज बना दी है इसलिए डर लग रहा है. कुछ बचपन की फुटकर मज़ेदार बातें लिखने का इरादा है, चलेगा क्या? फिर भी आप उसे बकलमखुद कहने का इसरार करेंगे?
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11 मार्च, 2008
खिलौना बंदूक और असली ख़ौफ़
हिंसा का पारसी थिएटर हमने आपने ही नहीं, मेरे साढ़े तीन साल के बेटे ने भी खूब देखा है. मगर हिंसा का परिणाम किसने, कहाँ और कितनी बार देखा है.
एक्सीडेंट एंड इमरजेंसी के डॉक्टरों, पुलिसवालों और कुछ दूसरे बदक़िस्मत लोगों को पता है कि गोली लगने पर ख़ून कैसे बलबल करके निकलता है, छुरा जब अँतड़ियाँ बाहर निकाल देता है तो आदमी कैसे हिचकियाँ लेता है. एक विधवा, एक असहाय माँ, एक अनाथ बच्चा...वे अपनी ज़िंदगी में कैसे घिसटते हैं, उसकी फ़िल्में कौन बनाता है, कौन देखता है?
मेरा बेटा पिछले तीन महीने से खिलौना बंदूक यानी गन खरीदने के लिए बेहाल है. गन चाहिए उसे ताकि वह फिश्श फिश्श कर सके, फ़ायर शब्द उसे बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई इसलिए उसने ख़ुद ही फिश्श फिश्श गढ़ लिया है. बंदूक न सही, वह चम्मच, पेंसिल या टीवी के रिमोट को गन बनाकर कूद-कूदकर गोलियाँ दाग़ने लगा है.
उसे पुलिसमैन बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनके पास गन होती है जिससे वे फिश्श फिश्श कर सकते हैं. वह बड़ा होकर पुलिसमैन बनना चाहता है ताकि वह भी फिश्श फिश्श कर सके. बंदूक के घोड़े के पीछे की ताक़त उसे समझ में आ गई है जबकि उसे कई बुनियादी काम अभी नहीं आते.
टीवी पर हमने उसे बालजगत टाइप कार्यक्रम दिखाना शुरू किया है और हिंदी फ़िल्मों की डोज़ कम से कम कर दी गई है लेकिन बंदूक के प्रति उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है. ख़ून-ख़राबा, मार-पीट के सीन देखने पर वह हमारे रटाए हुए जुमले को दोहराता है, 'दैट्स नॉट वेरी नाइस,' लेकिन साढ़े तीन साल का बच्चा भी शक्ति संतुलन समझता है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि उसे बंदूक के किस तरफ़ रहना चाहिए, पीछे या सामने.
भारत यात्रा से लौटने के बाद बच्चे को हिंदू परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से बालगणेश और रामायण की वीडियो सीडी ख़रीदी गई थी. बालगणेश के शुरूआती दस मिनट बीतने से पहले ही शिवजी ने बालगणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया...रामायण में भी राम जी तीर से, हनुमान जी गदा से और दूसरे योद्धा तलवार से खून बहाते दिखे...
यानी जिस मुसीबत से बचने की कोशिश कर रहे थे उससे पीछा नहीं छूटा. बताना पड़ा कि पुलिसवाले,गणेशजी, हनुमान जी सिर्फ़ बुरे लोगों को मारते हैं, बात फ़ौरन उसकी समझ में आ गई. उसे खेल-खेल में जिसको भी फिश्श फिश्श करना होता है उसे बुरा आदमी बना लेता है. दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है.
हिंसा से मुझे डर लगता है, हिंसा का निशाना बनने की कल्पना से ज्यादा भयावह कुछ नहीं है मेरे लिए, क्योंकि मैं शारीरिक-मानसिक तौर पर हिंसा से निबटने में ख़ुद को अक्षम पाता हूँ, जो ख़ुद को सक्षम पाते हैं वे मूर्ख हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे दो-तीन लोगों को पीट देंगे, मार देंगे लेकिन हिंसा कितनी बड़ी और कितनी घातक हो सकती है, इसे वे भूल जाते हैं.
हिंसा से हर हाल में डरना चाहिए, बचना चाहिए, वैसे इसके लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती है, करना या न करना आपकी मर्ज़ी.
मुझे तो बच्चे की बंदूक से भी डर लगता है. सोमालिया, सिएरा लियोन, श्रीलंका, इराक़-फ़लस्तीन और पाकिस्तान के बच्चे आज खिलौना बंदूक से खेल रहे हैं लेकिन उनके लिए एके-47 कोई अप्राप्य खिलौना नहीं है. सामने खड़े साँस लेते आदमी को फिश्श फिश्श कर देना उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं है.
हम अपने बच्चे को स्क्रीन पर हिंसा देखने से रोकना चाहते हैं, उसे बताते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है लेकिन जब उन बच्चों का खयाल आता है जिन्होंने टीवी और सिनेमा के स्क्रीन पर नहीं, अपनी ज़िंदगी में ये सब देखा है तो सिर पकड़कर-आँखें मूँदकर सोफ़े पर धम्म से बैठने के अलावा हमसे कुछ और नहीं हो पाता.
एक्सीडेंट एंड इमरजेंसी के डॉक्टरों, पुलिसवालों और कुछ दूसरे बदक़िस्मत लोगों को पता है कि गोली लगने पर ख़ून कैसे बलबल करके निकलता है, छुरा जब अँतड़ियाँ बाहर निकाल देता है तो आदमी कैसे हिचकियाँ लेता है. एक विधवा, एक असहाय माँ, एक अनाथ बच्चा...वे अपनी ज़िंदगी में कैसे घिसटते हैं, उसकी फ़िल्में कौन बनाता है, कौन देखता है?
मेरा बेटा पिछले तीन महीने से खिलौना बंदूक यानी गन खरीदने के लिए बेहाल है. गन चाहिए उसे ताकि वह फिश्श फिश्श कर सके, फ़ायर शब्द उसे बताने की ज़रूरत नहीं समझी गई इसलिए उसने ख़ुद ही फिश्श फिश्श गढ़ लिया है. बंदूक न सही, वह चम्मच, पेंसिल या टीवी के रिमोट को गन बनाकर कूद-कूदकर गोलियाँ दाग़ने लगा है.
उसे पुलिसमैन बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनके पास गन होती है जिससे वे फिश्श फिश्श कर सकते हैं. वह बड़ा होकर पुलिसमैन बनना चाहता है ताकि वह भी फिश्श फिश्श कर सके. बंदूक के घोड़े के पीछे की ताक़त उसे समझ में आ गई है जबकि उसे कई बुनियादी काम अभी नहीं आते.
टीवी पर हमने उसे बालजगत टाइप कार्यक्रम दिखाना शुरू किया है और हिंदी फ़िल्मों की डोज़ कम से कम कर दी गई है लेकिन बंदूक के प्रति उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है. ख़ून-ख़राबा, मार-पीट के सीन देखने पर वह हमारे रटाए हुए जुमले को दोहराता है, 'दैट्स नॉट वेरी नाइस,' लेकिन साढ़े तीन साल का बच्चा भी शक्ति संतुलन समझता है, उसे सिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि उसे बंदूक के किस तरफ़ रहना चाहिए, पीछे या सामने.
भारत यात्रा से लौटने के बाद बच्चे को हिंदू परंपरा से अवगत कराने के उद्देश्य से बालगणेश और रामायण की वीडियो सीडी ख़रीदी गई थी. बालगणेश के शुरूआती दस मिनट बीतने से पहले ही शिवजी ने बालगणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया...रामायण में भी राम जी तीर से, हनुमान जी गदा से और दूसरे योद्धा तलवार से खून बहाते दिखे...
यानी जिस मुसीबत से बचने की कोशिश कर रहे थे उससे पीछा नहीं छूटा. बताना पड़ा कि पुलिसवाले,गणेशजी, हनुमान जी सिर्फ़ बुरे लोगों को मारते हैं, बात फ़ौरन उसकी समझ में आ गई. उसे खेल-खेल में जिसको भी फिश्श फिश्श करना होता है उसे बुरा आदमी बना लेता है. दुनिया भर में बंदूक के पीछे बैठे जितने लोग ख़ुद को अच्छा आदमी बताते हैं उनका खेल अब समझ में आ रहा है.
हिंसा से मुझे डर लगता है, हिंसा का निशाना बनने की कल्पना से ज्यादा भयावह कुछ नहीं है मेरे लिए, क्योंकि मैं शारीरिक-मानसिक तौर पर हिंसा से निबटने में ख़ुद को अक्षम पाता हूँ, जो ख़ुद को सक्षम पाते हैं वे मूर्ख हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वे दो-तीन लोगों को पीट देंगे, मार देंगे लेकिन हिंसा कितनी बड़ी और कितनी घातक हो सकती है, इसे वे भूल जाते हैं.
हिंसा से हर हाल में डरना चाहिए, बचना चाहिए, वैसे इसके लिए काफ़ी कोशिश करनी पड़ती है, करना या न करना आपकी मर्ज़ी.
मुझे तो बच्चे की बंदूक से भी डर लगता है. सोमालिया, सिएरा लियोन, श्रीलंका, इराक़-फ़लस्तीन और पाकिस्तान के बच्चे आज खिलौना बंदूक से खेल रहे हैं लेकिन उनके लिए एके-47 कोई अप्राप्य खिलौना नहीं है. सामने खड़े साँस लेते आदमी को फिश्श फिश्श कर देना उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं है.
हम अपने बच्चे को स्क्रीन पर हिंसा देखने से रोकना चाहते हैं, उसे बताते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है लेकिन जब उन बच्चों का खयाल आता है जिन्होंने टीवी और सिनेमा के स्क्रीन पर नहीं, अपनी ज़िंदगी में ये सब देखा है तो सिर पकड़कर-आँखें मूँदकर सोफ़े पर धम्म से बैठने के अलावा हमसे कुछ और नहीं हो पाता.
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