दो दशक पहले कुछ कविताएँ लिखी थीं जो कई तथाकथित प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 'नवांकुर', 'नई पौध' और 'कोंपल' जैसे स्तंभों के तहत छपीं भी लेकिन जल्द ही समझ में आया कि मैं ऐसी कोई बात नहीं कह रहा जिसे लोग पढ़ना या सुनना चाहेंगे. दिलचस्प बात है कि कविता सहज ही फूटती है (कुछ लोग फूटते ही दूसरों पर फेंकने लगते हैं, कुछ उसमें से मोती चुनते हैं और कुछ कचरा समझकर किनारे हटा देते हैं.) मैं शायद तीसरी श्रेणी में आता हूँ, मेरे भीतर जो कविता फूटती है वह मुझे थोड़ी कमतर नस्ल की लगती है... बहरहाल, गद्य शायद सुविचारित ज़्यादा होता है, हालाँकि शिल्प का महत्व दोनों विधाओं में एक जैसा है. शायद यही वजह है कि ज़्यादातर भाषाओं में खंडकाव्य और महाकाव्य पहले रचे गए, कहानी और उपन्यास बाद में.
ओफ़, यही समस्या है मेरी, मुद्दे पर ज़रा देर से आता हूँ. इतना लिख मारा पर दिल्ली शब्द तो कहीं आया ही नहीं जिसे पढ़कर आप अंदर दाख़िल हुए हैं. मैं कुछ अरसा पहले दिल्ली में था. एक ट्रैफ़िक जाम में बुरा फँसा, डेढ़ घंटे तक. क्या करता...यूँ ही नोटपैड पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा और रास्ता खुलने का इंतज़ार करता रहा. कोई 20 बरस बाद कुछ कवितानुमा चीज़ें अचानक नमूदार हुईं, शायद पहले भी होती रही हैं लेकिन मैंने उन्हें नोट नहीं किया था. इस बार किया. सब राजधानी दिल्ली के बारे में हैं, दिल्लीवालों किसी बात का बुरा न मानना, मैंने भी कई बरस दिल्ली में गुज़ारे हैं. दिल्ली के एहसान हैं मुझ पर. दिल्ली की शान में क़सीदे ग़ालिब और मीर ने बहुत पढ़े हैं, अपने वालों के लिए माफ़ी चाहता हूँ. वैसे ग़ालिब और मीर होते तो न जाने आज वाली दिल्ली पर क्या कुछ कहते.
एक
ये दलालों का शहर है
सब कहते हैं, ख़ुद दलाल भी
बात में वज़न है
क्योंकि जो कह रहा है
वो बाइज़्ज़त शहरी है.
दो
साँप-सीढ़ी का खेल है
समझदार पूँछ से चढ़ते हैं
कुछेक सीढ़ियाँ उतरते हैं.
तीन
नए लोग
नई गाड़ियाँ
दोनों भागते हैं
अलग-अलग रास्ते.
चार
कहीं से आए थे
यहीं आना था
सबको कहीं पहुँचना है
कुछ फ्लाईओवर पर हैं
ज़्यादातर लाल बत्ती पर.
पाँच
दूर-दूर से आते हैं
हुनर सारे आते हैं
जीने का ढंग
यहीं सिखाया जाता है
तसल्लीबख़्श.
छह
'ब्रैड' पकौड़ा
बैण का ....
'फ्रिज की लगी पैप्सी'
'चैस्ट' क्लिनिक
'बैस्ट' है अपनी दिल्ली.
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7 टिप्पणियां:
सही है यही तरीका है पुराना माल निकालने का! आगे भी लिखें!
क्या ख़ूब , अनामदासजी ।
"""यूँ ही नोटपैड पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा और रास्ता खुलने का इंतज़ार करता रहा."""
आप ने तो हमारे ब्लाग पर एक भी पदचिह्न नही छोडा । रेखाएं तो दूर की बात है ।
खैर,अब आ जाइएगा।
कुछ लोग फूटते ही दूसरों पर फेंकने लगते हैं, कुछ उसमें से मोती चुनते हैं और कुछ कचरा समझकर किनारे हटा देते हैं
.....................
कुछ फ्लाईओवर पर हैं
ज़्यादातर लाल बत्ती पर.
बढ़िया !!
आपका दिल्ली-तज़ुर्बा बिलकुल मेरे जैसा है। कहीं ऐसा तो नहीं सभी दिल्लीवासी ऐसे ही तज़ुर्बेकार हैं? खैर आपकी क्षणिकाएँ पसंद आयीं। विशेषरूपेण-
नए लोग
नई गाड़ियाँ
दोनों भागते हैं
अलग-अलग रास्ते.
""यूँ ही नोटपैड पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा और रास्ता खुलने का इंतज़ार करता रहा""
---आप तो हमारे ब्लाग पर आए ही नही। कहे झूठ बहका रहे है!:)
प्रिय अनामदास जी,
आपकी गुमनामियों में आकर.. और अभय के सलोनेपन से निकलकर.. लगता है इस आभासी दुनिया की भी दिशाएं हैं.. ख़्याल करके अच्छा लगता है.. आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते रहें.. ज्यादातर यहां लाल बत्ती पर ही खड़े रहते हैं.. और खिंचे-खिंचे रहते हैं..
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