15 मार्च, 2007

पुत्र चरणचंपन और पितृऋण

आत्मा-परमात्मा की चर्चा को थोड़ी देर के लिए विराम देते हैं, कल रात जो हुआ उसकी बात करना मेरे लिए ज़रूरी है.

मेरा बेटा दो साल का है, कल आधी रात बिलख-बिलखकर रोने लगा,वह थोड़ी बहुत हिंदी-अँगरेज़ी बोलता है लेकिन बाक़ी बातें ग्रीक, हिब्रू और लैटिन में करता है. उसका रोना सुनकर मेरे हाथ-पाँव फूल गए. मैंने उसके शरीर के हर हिस्से को दबाकर पूछा--कहाँ दर्द हो रहा है, अंत में पता चला कि साहब के पैर दुख रहे हैं. मैंने उनके पैरों की मालिश की और वे बड़े आराम से सो गए,घंटे भर बाद उनके रोने की आवाज़ से मेरी नींद खुली, मैंने पैर दबाया और साहब फिर सो गए...यह सिलसिला पूरी रात चलता रहा. मैं भी नींद में पैर दबाता रहा और साहब जागते-सोते रहे...दिन में उन्होंने पार्क में बहुत धमाचौकड़ी की थी.

एक धुंधली सी याद अचानक फ्लैशबैक की तरह आई,दुर्गापूजा के मेले से लौटकर तक़रीबन तीस साल पहले मेरे पैरों में ऐसा ही दर्द हुआ था और मेरे पापा ने रात को मेरे पैरों की मालिश की थी. यह बात मैं भूल चुका था लेकिन कल रात की घटना से धुंधली सी याद जैसे दोबारा रेखांकित हो गई. मैं नींद में डूबता-उतराता रहा और सोचता रहा कि मैं पापा के पैर दबा रहा हूँ.मैंने पापा के पैर कभी नहीं दबाए हैं, मैं उनसे हज़ारों किलोमीटर दूर हूँ. बुढ़ापे में उन्हें शायद मेरी उतनी ही ज़रूरत है जितना बचपन में मेरे बेटे को.

जब मेरा बेटा पैदा होने के बाद पहली बार मेरे हाथों में आया था तो मुझे लगा था कि किसी ने मेरे पापा को मिनीमाइज़ करके मेरे हाथों में दे दिया है. वर्षों तक पिता के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजाने वाले मेरे मन ने अचानक पलटी मारी और मैं उनके हर सही-ग़लत काम को गहरी सहानुभूति के साथ देखने लगा.बाप बनने पर पितृत्व के वरदान से वंचित कई दोस्तों ने पूछा, "कैसा लग रहा है?" मैंने इतना ही कहा कि "लाखों की साल से चली आ रही कड़ी को तोड़ने के इल्ज़ाम से बरी हो गया हूँ,पितृऋण से मुक्त हो गया हूँ."

मगर कल रात जब अपने बेटे के पैर दबाते हुए मुझे महसूस हुआ कि मैं अपने पिता के ही पैर दबा रहा हूँ तो सचमुच लगा कि यह पितृऋण ही तो है जो मैं चुका रहा हूँ. मेरे पिता ने मेरे पैर दबाए, मेरा बेटा शायद मेरे पैर कभी नहीं दबाएगा लेकिन अपने बेटे के पैर नहीं दबाएगा इसके आसार कम ही हैं. यह शायद पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली मानवता की सेवा है जो ऊपर से नीचे की ओर चलती है, शायद ही कभी नीचे से ऊपर जाती है. काश ऐसा नहीं होता.

3 टिप्‍पणियां:

अभय तिवारी ने कहा…

भाई ऊपर से नीचे की ओर तो ठीक है..लेकिन सिर्फ़ बेटे के पैर दबाकर पितृॠण चुकता नहीं शायद..कम से कम शास्त्रों की राय तो ऎसी नहीं..फिर भी मनन अच्छा है..बेटे को तुम्हारी ज़रूरत है..कुदरतन आदमी बेटे को प्यार करता है..देखभाल करता है..मगर कुदरतन पिता की उपेक्षा भी करता है.. बेमानी हो गया है वो कुदरत की डिज़ाइन में...कोई शास्त्र,किसी धर्म का नहीं कहता कि अपने बेटॆ को प्यार करो.. उसे तुम्हारी ज़रूरत है..लेकिन हरेक कहता है माँ बाप का खयाल करो.. जानते हैं.. बेटॆ के आते ही माँ बाप को भूलने वाले हैं लोग..धर्म मानवता का तक़ाज़ा है.. लेकिन आजकल हम आँखमूँद कर धर्म को रिजेक्ट करते हैं और बहुत चिन्तन मनन के बाद ही कोई बात मानते हैं..

योगेश समदर्शी ने कहा…

बहुत खूब!
वास्तव में पिता की याद आ गई.
बधाई!

अनामदास ने कहा…

अभय भाई
एक रात बेटे के पैर दबाकर अगर कोई पितृऋण से उऋण हो सकता तो बात ही क्या थी. मेरा आशय सिर्फ़ इतना है कि बेटे के पैर दबाकर तो पितृऋण के बोझ का एहसास भर हुआ, और बेबसी ने कचोटा कि हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर रहे.ऐसी कितनी रातें गईं होंगी जो हमारे माँ-बाप ने हमारे लिए जागकर काटी होंगी और न जाने क्या-क्या किया होगा लेकिन हम उनके लिए कुछ करने के बदले उसके लिए करेंगे जो अपनी औलाद के लिए करेगा, हमारे लिए नहीं.
अनामदास