26 मार्च, 2007

नियति है नींबू खरीदकर पत्रकार बन जाना

जैसा गोसांई तुलसीदास ने कहा है--'जीवन, मरण, हानि, लाभ, यश अपयश सब विधि हाथ'...

इसके अलावा जो बचा सब आपके हाथ में है.

नियति को न मानने वालों और कर्म के बूते अपना भविष्य गढ़ने की बात करने वालों की कमी नहीं है, ऐसी बातें करने से आत्मविश्वास झलकता है, आपको कर्मठ और ज़िम्मेदार समझा जाता है यानी कुल मिलाकर यह स्वागतयोग्य विचार है. जवाब में यह ख़ेमा बाबा तुलसीदास को ही कोट कर सकता है--सकल पदारथ यही जग माहिं, करमहीन नर कछु पावत नाहीं.


जबकि नियति की बात करने वाले की नियति ही है कि वह अपने लिए कर्महीन, आलसी और भाग्यवादी जैसी संज्ञाएँ सुनने को तैयार रहे. लेकिन मैं घबराने वाला नहीं हूँ. मैंने अनामदास का चिट्ठा अपने भ्रमों को दर्ज करने के लिए ही शुरू किया है. इसका उद्देश्य भ्रमों से मुक्त होना क़तई नहीं है बल्कि इस मायाजाल का आनंद लेना है. अगर आप समझते हैं कि सृष्टि, स्रष्टा, जीवन, मरण, भाग्य, प्रारब्ध जैसी धारणाओं के बारे भ्रमों से मुक्त हुआ जा सकता है तो आप मुझ से भी ज़्यादा भ्रमित हैं.

ख़ैर, विषय पर लौटते हैं. नियति यानी होइए वही जो राम रचि राखा. आप कह सकते हैं कि हम जैसे कर्म करते हैं वैसा हमारा जीवन होता है. आप कहेंगे कि मैं पत्रकार इसलिए बना क्योंकि मैंने इसके लिए पढ़ाई की और फिर नौकरी ढूँढी लेकिन मैं कहता हूँ कि मैं पत्रकार इसलिए बना क्योंकि मेरी माँ ने मुझे नींबू ख़रीदने के लिए भेजा था.

नींबू वाले ने जिस अख़बार पर बिछाकर नींबू बेचने के लिए रखे थे उसी पर पत्रकारिता के कोर्स का विज्ञापन छपा था...बात 16 वर्ष पुरानी है, आवेदन भेजने की आख़िरी तारीख़ को मेरी उस पर नज़र पड़ी थी. अगर न पड़ी होती तो कहीं सरकारी नौकरी कर रहा होता. आप कहेंगे फिर भी सब कुछ किया तो आपने ही न? नहीं, ऐसा नहीं है, मुझसे अधिक योग्य लोग सड़कों की खाक छान रहे हैं और बहुत अयोग्य लोग चाँदी काट रहे हैं. इसका कर्म और योग्यता से कम और संयोग से अधिक संबंध है, सही जगह पर सही समय पर होना नियति है. ग़लत जगह पर ग़लत समय पर होना भी.

मैं यह नहीं कह रहा कि कर्म की भूमिका नहीं है लेकिन उसकी स्पष्ट सीमाएँ हैं. आपका जन्म जिस परिवार में हुआ है वही हज़ारों चीज़े तय कर देता है जिसे बदलना असंभव है और यह आपके हाथ में क़तई नहीं है. मृत्यु भी आपके हाथ में नहीं है, रोग भी नहीं...

आप रोज़ सड़क पार करते हैं, बसों में, ट्रेनों में चढ़ते-उतरते हैं, गाड़ी चलाते हैं, आग जलाते हैं, एक दिन में हज़ारों ऐसे काम करते हैं जिनमें आपकी जान जा सकती है...कहने की कोशिश ये है कि संभाव्यता (थ्योरी ऑफ़ प्रोबेबिलिटी) के हिसाब से कभी भी कुछ भी हो सकता है. नियति का मतलब है--जो होना है वह पहले से तय है. इसे स्वीकार कर लेना बहुत कठिन है कि क्योंकि यह अपनी निर्थकता को मान लेने जैसा है.

ज्योतिष में मेरा उथला सा विश्वास है. मेरी दो जन्मकुंडलियाँ, जो मेरे जन्म के तुरंत बाद ददिहाल और ननिहाल में बनाई गई थीं, कहती हैं कि मैं लिखने-पढ़ने के धंधे में लगूँगा...और भी बहुत कुछ...जो काफ़ी हद तक सही है. अब अगर आप इसे तुक्का कहते हैं तो ज़रा ग़ौर से सोचिए...एक नवजात शिशु के जीवित रहने से लेकर...उसके पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने, विदेश जाने की भविष्यवाणी करना दसियों हज़ार संभावनाओं में से सही विकल्प चुनना है...बच्चा कुछ दिनों बाद मर क्यों नहीं सकता, मंद बुद्धि क्यों नहीं हो सकता...पढ़ने के बदले खेल में रूचि लेने वाला क्यों नहीं हो सकता...वग़ैरह-वगैरह हर साँस के साथ अनेक विकल्प हैं.

यानी कुछ विधियाँ हैं जिनकी मदद से कुछ हद तक भविष्यवाणी की जा सकती है. अगर किसी भी हद तक भविष्यवाणी की जा सकती है इसका मतलब है कि चीज़ें पूर्वनिर्धारित हैं, अगर पूर्वनिर्धारित नहीं है तो भविष्यवाणी बिल्कुल नहीं हो सकती.

इस तर्क की अगली कड़ी ये है कि अगर नियति है तो उसका कोई नियंता भी होगा. सोचिए ज़रा.

4 टिप्‍पणियां:

Srijan Shilpi ने कहा…

नियति और संयोग इस संसार का एक बड़ा सच है। हो सकता है कि इसको संचालित करने वाले नियंता के लिए यह सब नाटक या लीला मात्र हो, लेकिन जो संसार-प्रपंच की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए इसे संजीदगी से जीते हैं, उन्हें तो यह सब यथार्थ ही लगता है और वे हर्ष-विषाद, प्रेम-क्रोध, सफलता-विफलता जैसे द्वंद्वों में डूबते-उतराते रहते हैं और इससे शायद ही कभी मुक्त हो पाते हैं। जैसा कि स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि चेतन प्रकृति इन परिस्थितियों से जीवात्मा को इसलिए गुजारती है, ताकि उसे शिक्षा मिल सके और वह द्वंद्वों से मुक्त होकर पूर्णता के पथ पर अग्रसर हो सके।

लेकिन सबकुछ जानबूझ कर भी भ्रम में बने रहने का मजा ही कुछ और है। जैसा कि गालिब कहते हैं, "हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है"।

Unknown ने कहा…

पढ़कर एक पुरानी लिखी कविता याद आ गई..

सवाल मन के

गुब्बारे में भरी हवा का भार क्या है ?
माँ की साँसो की गुनगुन का सुरताल क्या है ?
वो आँसू जो आँखों मे सूखा उसका माप क्या है ?
मिट्टी की सौंधी खुशबू का नाम क्या है ?
बुलबुले के जीवन का अर्थ क्या है ?
उसमें तैरते इन्द्रधनुष की जरूरत क्या है ?

सोच समझ सपने और अपने....इनका हिसाब क्या है ?
एक सोच से सोच.... अहसास से अहसास.... हर साँस की सरगम...
कुछ दर्द और उन्हे बाँटने में खुशी.....
क्यूं जुड़ी है इस तरह जिन्दगी....?

कटपुतली हूँ अगर तो ड़ोर किसके हाथ में...?
सही और गलत इसका बहीखाता किस किता़ब में...??

ना मापदंड ....ना दिशा का ज्ञान....ना सही और गलत की पहचान....
बस ना जाने क्यूँ अहँकार है......
लगता है आसमां मेरे पैरों के तले है....
और ज़मीं मुट्टी में....
इस अहंकार का आधार क्या है....?

सूत्रधार कौन है …..???

ghughutibasuti ने कहा…

यदि कोई नियंता है तो बहुत विचित्र है वह। शायद कुछ क्रूर भी,कुछ मजाकिया भी,कुछ बचपना भी है उसमें। कभी अकारण बहुत कुछ दे देता है कभी अकारण ले लेता है। शायद वह हमारे जीवन से वैसे ही खेलता है जैसे बच्चे गुड्डे गुड़ियों के साथ।
घुघूती बासूती

संजय बेंगाणी ने कहा…

आपकी रूची थी तभी उस विज्ञापन पर आपने ध्यान दिया, वरना तो और भी विज्ञापन छपते है.
आप सरकारी नौकरी बिलकुल नहीं करते हाँ विज्ञपन नहीं देखते तो, कोई और रास्ते से ऐसे ही प्रोफेशन की तरफ जाते.
मामला रूची का है.