अचानक वो सब अच्छा लगने लगा है जो पीछे छूट गया, मैंने कुछ भी रौंदा नहीं मगर पीछे छूट गई चीज़ों को न उठा पाने का अफ़सोस सालता है. रेला आगे जा रहा है जहाँ छूट गई चीज़ को पलटकर उठाना मुमकिन नहीं है.
मैंने नहीं उठाया इसीलिए सब रौंदे गए, हाथ से गिरे गली, मुहल्ले, आँगन, कुएँ, आम-अमरूद, गिल्ली डंडे, लट्टू, पतंग, कंचे... वक़्त के क़दमों तले. अपराध बोध है जो जाता ही नहीं.
नॉस्टेलजिया एक रोमैंटिक चीज़ हुआ करती थी, आजकल स्क्रित्ज़ोफिनिया की तरह एक मनोविकार है, कम से कम बुढ़ा रहे आदमी का प्रलाप तो ज़रूर.
क़स्बे में निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार पैदा होकर पहले भारत और उसके बाद दुनिया के महानगरों को देखने वाले चालीस के करीब पहुँच रहे आदमी की त्रासदी बड़ी विचित्र है, न बताते बनती है, न छिपाते. वह पूरी तरह वस्तुहारा है, न इधर का न उधर का. उसकी प्यास कहीं नहीं बुझती, उसकी बेचैनी कभी नहीं मिटती.
सैटेलाइट टीवी के सैकड़ों चैनल मिलकर घुर्र-घुर्र करने वाले आकाशवाणी जैसा सुकून नहीं दे रहे, महँगे से महँगे रेस्तराँ नंदू की कचौड़ी-जिलेबी का सुख नहीं दे रहे, फ्रिज की आइसकोल्ड बियर से वह तरावट नहीं मिल रही जो सौंफ या बेल के शर्बत से मिलती थी...
गर्मी की दुपहरी में दाल-भात-सब्ज़ी के ऊपर से आम खाकर सफ़ेद गंजी-पजामा पहनकर छह नंबर पर पंखा चलाकर डेढ़ घंटे सोने का स्वर्गतुल्य सुख अब कहाँ है. उसके लिए वही घर चाहिए, अपने पेड़ का आम चाहिए और शायद वही उम्र चाहिए...और किसी तरह की नौकरी कतई नहीं चाहिए.
घर था, फ्लैट नहीं, आँगन था, बालकनी नहीं, मालती, हेना, गुलाब सब पसरे थे, आँगन में आम-अमरूद तो थे ही ओल (सूरन,जिमीकंद) न जाने कैसे अपने-आप ज़मीन के नीचे आ बैठता था. नालियों में छछूंदर रेंगते थे, दीवारों पर काई जमती थी, पूरी बारिश भुए रेंगते थे जो धूप निकलने पर भूरी-धूसर-काली तितलियाँ बनकर उड़ने लगते थे, चार-पाँच तरह के मेढ़क, पाँच-सात तरह के फतिंगे, दस-बीस तरह के कीड़े सब अपने-अपने चक्र के अनुरूप दर्शन देते. जिसे आजकल इकॉलॉजी कहा जाता है वह सब हमारे घर में था.
बारिश की बूंदे पूरी रात छप्पर से स्विस घड़ी की तरह सेंकेंड-दर-सेकेंड गिरती थीं, मुंडेर पर बिल्लियाँ और चौराहे पर कुत्ते लड़ते थे, चौकी के नीचे चूहे दौड़ लगाते थे और मोड़ पर शराबी एक-दूसरे को पहले गालियाँ देते और बाद मे गले मिलते थे. सुबह हम गन्ना चूसते थे, दोपहर में झेंगरी (हरा चना) और शाम को फुचका (गोलगप्पा). लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकता जिसमें शामिल थी अधगिरी छप्पर पर उगी तुरई की तरकारी.
यह गया वक़्त है जो लौटकर आ नहीं सकता. क़स्बे तो कुओं को पाट चुके हैं, आम-अमरूदों को काट चुके हैं, वे उन लड़कों की तरह हैं जो जवान होने की जल्दी में उगने से पहले ही दाढ़ी बनाने लगते हैं. मैं जिस क़स्बे को याद करके आँखें गीली करता हूँ आज का गाँव वहाँ आ पहुँचा होगा.
मैं सोचता हूँ मेरे पिता कितने निर्द्वंद्व थे कि ख़ानदानी घर है, बच्चे यहीं रहेंगे, सब कुछ ऐसा ही रहेगा आम-अमरूद, आँगन-कुआँ...जैसा उनकी जवानी में था लेकिन कुछ भी नहीं रहा. मैं सोचकर डरता हूँ और दावे से नहीं कह सकता कि मेरा बेटा चाँद पर नहीं रहेगा.
ऐसे में कोई खवनई की बात करे, कोई आकाशवाणी ट्यून करे, कोई कोंहडौरी की याद दिलाए, कोई पेटकुनिए लेटने की मुद्रा बताए, कोई बिल्लू के बचपन का ज़िक्र छेड़ दे, कोई घर में पहली बार रखे गए दर्शनीय फ्रिज की तस्वीर पेश करे, कोई दरंभगा के माटसाब की तस्वीर खींचे, कोई बनारस के क़िस्से छेड़े दे (कई और हैं...) तो ऐसा लगता है कि किसी ने ज़ख़्मों पर नरम फाहा रख दिया हो.
हम बदलते वक़्त के शरणार्थी हैं. कश्मीरी पंडित से चिनार और गुश्ताबा की बात दिल्ली में करो या न्यूयॉर्क में, आहें भरने के अलावा उसके पास चारा क्या है. वह कश्मीर नहीं लौट सकता, हम भी प्री-ग्लोबलाइज़ेशन दौर में नहीं जा सकते, बस आहें भर सकते हैं.
एक नया भरम है, आभासी दुनिया में अपने जैसे लोगों की खोज में भटक सकते हैं. ऐसे लोग जिनका अतीत हो, जो उन्हें याद हो, और भविष्य के सुनहरे सपनों से उनकी मेमरी चिप फुल न हो गई हो. उनसे गले मिल लें, हँस लें, रो लें, झूठ-मूठ ही एक बार फिर उस दौर को जी लें.
22 जून, 2007
मुहल्ले, क़स्बे और महानगर में भटकता अनामदास
Labels:
अनामदास का चिट्ठा,
ब्लाग,
हिंदी,
हिन्दी,
anamdas ka chitta,
blog,
hindi
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
17 टिप्पणियां:
वाह क्या बात है मित्र.. अब आप ने धकेल दिया पीछे गर्मी के दिनों में.. छै नम्बर का पंखा चला कर डेढ़ घंटे की नींद..बहुत प्यारी पोस्ट..
शानदार!!!
बहुत से पल फ़िर जिला दिए आपने!!
जीवन के बदलते परिवेश को अच्छी तरह से रखा आपने. इसी अवस्था को हमारे भाषा में नराई कहते हैं.. मैने इस पर लिखा भी था एक बार .
लेकिन इस उहापोह से कैसे बचा जाय.गांव है जो मिल नहीं सकता.शहर जीने नहीं देता तो क्या करें? कैसे जियें? कहाँ जियें?
पेट भूखा हो तो यारो कब नजर आते हैं ख्वाब!!
सन्ट लिख मारा है अनामदास जी।
आप शायद विदेश में बैठे हैं..पर हम यहीं होकर भी ३-४ महीने में एक बार "घर" जाकर यादें ताजा करने की कोशिश करते हैं...
और बदलाव तो हो ही रहा है..
आपसे सहानुभूति है मित्र. आपका नोस्टॉल्जिया हमारा वर्तमान है. पर यह कब तक रहेगा, कह नहीं सकते.
यह भी है कि आप रियर व्यू देखते हुये गाड़ी नहीं चला सकते. गाड़ी चलाना नोस्टॉल्जिया से ज्यादा महत्वपूर्ण है.
आलोक पुराणिक से उधार लेकर कहता हूं- शानधारम. हालांकि इससे ज़्यादा कहता तो दिल की बात कह पाता लेकिन दिहाडी का दबाव है भाग रहा हूं. क्या कोई ऐसा दिन भी आयेगा जब आ.पु. से भी आगे जाकर कोई हमें नया शब्द देगा--जैसे शा.धा. ?
ये तो गलत बात है । एक तो हम वैसे ही पीछे लौटते रहते हैं और अब आप भी कहाँ कहाँ ले गये । वो भी उस इकॉलॉजी की दुनिया में जहाँ मेंढक , फतिंगे , चेरा , ओह! कितनी मुश्किल से भूले थे इनको ।
यादे हमारे बीते दिनो की
कर देती है सीना चाक
फ़िर किसलिये मुड के
पीछे देखना बार बार
पर दिल कहा भुलाता है
इक ये भी मुशकिल है यार
तो अनाम्दास जी आप तो अपने समाज और अपने आस पास की दुनियां को खूब बेहातर समझते है. अगर आप ऐसा ही लिखते रहे तो एक ना एक दिन आपको सबके सामने आना होगा क्योकि जैसा आप लिख रहे है उससे व्यक्तिगत तौर ये तो ज़रुर कहना चाहुंगा कि इस बार का बेस्ट ब्लाग का सर्वोच्च सम्मान आप को मिलना तय लग रहा है तो क्या पुरस्कार लेना आप पसन्द करेंगे या नहीं. खैर तब की तब देखेंगे. अच्छे लेखन के लिये आपको सलाम !!!! आपके इस लेखन ने दिल को छू लिया है लिखते रहे हम पढ्ते रहेंगे..
anaamdas ji yah sahi hai ki vaqta lautakar nahin aata. lekin yaadgar abhivyaktiyoun ko bhoot ka pralaap kahakar kharij nahin kiya ja sakta. nostalgia ko chaahe jis bhi mania ka nam dain, jab hum ateet se nikalte hain to bhavishya mein un kshanon ko yaad kar apane aap ko dhandhas hi to dete hain. us bhoot (kaal)ka vartaman hamen us samay bhale hi tadapaye lekin aaj vah hamen achchha lagata hai. isliye gali, mohalle aur kasbe gaon na to shahar hi huye aur na hi gaon.
जियरा हरियर हो गईल रहे तोहार ब्रेड पकौडा-वाली कविता पढ के | अबकी चुनौव्वा मेँ एक नारा लगत रहल ,सोचली चिट्ठवा पर कैसे जाई ? उहे कविता रस्ता देखा देलेस |जहाँ बसपा क पण्डित लडत रहलन , उहाँ पणडितन मेँ नारा लगे , " शुकुल हमारा भाीई है , 'पकौडे' से बसपाीई है " |
Ab dekhiye kyaa vidambana hai--jinko aapne aade haathon liyaa vo sabse pahle aap par taaliyaan bajaane chale aaye.Jis nostalgia par aapne sawaal uthaayaa usee ke shrenee men is post ko daal diyaa gayaa.shaayad hum jaldee-jaldee surakshit kone talaash lenaa chahate hain.Aap kee chintaayen samajhne liye Pratikriyaaon kee twaraa se kaam lena anyaay hoga.Vaise aap kis videsh me rahte ho?
मेरी नम आंखों के पोरों से झांक रही हैं कुछ बूंदें... ... इससे आगे शब्द नहीं मिल रहे हैं मुझे।
यादें
आज ढूँढा तो पाया...
रूह का एक टुकड़ा कहीं रह गया..
पुरानी सी वह समय की दीवार...
बीते पलों की धूल में लिपटी हुई...
फाँद कर चली वहीं बचपन में....
शायद यहीं खोया वह टुकड़ा मेरा....
खड़ी चारपाई से छनी धूप में...
टूटे सजे खिलौनों के साथ...
जामुन के पेड़ के नीचे...
गन्ने के चबाने के सुर के साथ..
नंगे पाँव में रंगबिरंगी उन तितलियों के पीछे...
कहीं उन पछीटों के साथ...
लुड़कती हुई उन अँटियों के खजाने में...
कहीं कीचड़ में गड़े सरिये के साथ....
पत्थर का टुकड़ा स्कूल से घर तक जो चला...
तो कहीं पाँच पैसे के लाल बेर के साथ...
कहीं आटे में काँच मिला माँझा बनाकर...
तो उस उड़ती अटकती पतंग के साथ....
गिरते हुए बारिश मे भीगी हुई....
कहीं उस रंगबिरंगे छाते के साथ....
लम्बी फ्रौक में माँ से छुपाकर रखी घुटने की चोट ...
तो टूटे हुए दाँत की मुस्कराहट के साथ...
सावन के मौसम में मेहंदी लगाकर.....
भैया की कलाई में राखी के साथ.....
कहीं बन्दर का खेल...कहीं सपेरे की बीन ...
कभी हाथी के सवारी के साथ.....
मेले में खरीदे बाजे का शोर...
तो कहीं शादी के बैण्ड और पताशे के साथ....
अमरूद के पेड़ पर पकडम पार्टी...
कहीं चोरी के आम नमक के साथ....
गर्मी की रातों में तारों के नीचे.....
सर्दी की खिली धूप में संतरे के साथ....
दो कुर्सी के साथ एक घर जो बनाया...
बोतलों के ढक्कनों से बरतन सजाये...
फटे एक कपड़े की गुडिया की साड़ी....
बस वहीं खड़ा मिला वह टुकड़ा मेरा...
लीपी हुई दीवार के पीछे खड़ा...
मासूम, नटखट, शरारत भरा....
कान से पकड़ा उसे....तो कहने लगा...
तू चल मुझे रहने दे यहाँ.....
दीवार फाँद वापस चली आई...
थोड़ी सी रूह पीछे छूट गई...
साथ यादें ले आई....
बचपन याद आ गया. बहुत कम ऐसा लिखा जाता है जिसमें बारिश के शुरुआती दौर की माटी की गमक मिलती है. ... ज्यादा कुछ नहीं कह सकते सिर्फ इसके कि शानदार रहा. हो सके तो कागज की कश्ती पर भी कुछ लिखे...
बहुत अच्छा लिखा अनामदास जी। यही तो विकासवाद की कहानी है, दुनिया बस आगे-आगे चलती है, बीता वक्त लौटकर नहीं आता।
वैसे हमारे साथ इनमें से बहुत सी बातें अब भी हैं। हम अब भी ६ नंबर पर पंखा लगा कर सोते हैं। :)
इस लिखने में मैं भी शामिल हूं। क्योंकि उस धूल-मिट्टी से मेरा भी नाता रहा। हम सब अपने कंधों पर अपना अतीत लिए चलते हैं- ये वह सलीब है जो कभी सैलाब बन जाता है। लेकिन इसे विस्थापन का वरदान मानो- क्योंकि वे सारी चीजें जब स्मृति बन जाती हैं तो बेहद मूल्यवान हो उठती हैं। उनके ही जरिए ये देखना संभव होता है कि हम अपनी संपू्र्णता में कैसे हैं और क्या हो रहे हैं।
वाणभट्ट
एक टिप्पणी भेजें